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उचित इन पांच प्रकारके दोनों से अनुकंपा दानका यही वात्पर्य है कि, अनाथ-दीन-दुःखी मनुष्यादि प्राणियोंको (चाहे वह किसी जाति अथवा किसी मतके हों) दया भावसे अन्न वस्त्रादि देना और उनकी योग्य सेवा करनी । “धर्मविदु" में जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरि लिखते. हैं कि,-" तथा दुःखितेष्वनुकम्पा यथाशक्ति द्रव्पतो. भावतश्व " अध्याय ३ सूत्र ६१ । अर्थात् दुःखी प्राणियोंपर यथाशक्ति द्रव्यसे और भावसे दया करनी । एवं उक्त ग्रंथके टीकाकार “प्रायः सद्धर्मवीजानि " धर्मविन्दु अ० २ सूक. १ इत्यादि सूत्रमें लिखते हैं कि, “सद्धर्मस्य सम्यक् ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य बीजानि कारणानि तानिचामूनि--दुःखितेषु. दयात्यन्तमद्वेषः गुणवत्सु च । औचित्यासेवनश्चैत्र, सर्वतैवाविशेषतः ॥ १ ॥ अर्थात् दुःखी प्राणियोंपर अति दया करनी (१) गुणी विद्वानोंसे अद्वेष अर्थात् प्रेम रखना । (२) सर्वत्र. समभावसे उचित्त व्यवहारका आचरण करना । (३) यह तीनोंही ज्ञान दर्शन और चरित्र रूप धर्मके मुख्य वीज अर्थात्, कारण हैं । इसलिए जैनोंके विषयमें स्वामीजीका उक्त आक्षेप सर्वथा अनुचित प्रतीत होता है।
इसके अनंतर जो स्वामीजीने कुछ विवेकसारका पाठ उद्धृत किया है उसके विषयमें हम केवल इतनाही कहना उचित समझते हैं कि, विवेकसारकी जैन धर्मके किसी भी. माननीय ग्रंथमें गणना नहीं है ! यह एक बिलकुल साधारण. भाषाका छोटासा संग्रह ग्रंथ है ! जबतक इसके उक्त लेखका आधार जैन मतके किसी मान्य ग्रंथमें न मिले तबतक इसपर विचार करना केवल पानी विलोनेके समान निष्फल है ! परंतु, विवेकसारके पाठको उद्धृत करके उसपर समीक्षा करते हुए