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________________ [१८] "'ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाजका सम्मान !" .. (प्रश्न ) ब्रह्मसमाज और प्रार्थना समाज तो अच्छा है चां नहीं ! ( उत्तर ) कुछ २ बातें अच्छी हैं और बहुतसी बुरी हैं | इत्यादि-स० ० ३७४ से ३८०] [१९] "जैन धर्मका सन्मान !" ( क ) सबसे वैरं विरोध निंदा ईर्षा आदि दुष्ट कर्मरूप सागरमें डुवानेवाला जैन मार्ग है जैसे जैनी लोग सबके * निंदक है वैसा कोई भी दुसरा मतवाला महा निंदक और अधर्मी न होगा. [ स०. पृ० ४३१] (ख) सब पाखंडोंका मूल भी जैन मत है. [ सत्यार्थ प्रकाश पृ० ४४० ] ___ (२०) " ढूंढक मतवालोंका सन्मान !" . (क) श्वेतांबरोंमेंसे ढूंढिया और ढूंढियोंमेंसे तेरापंथी आदि ढोंगी निकले हैं. . . . (ख) जैसे अंत्यजोंकी दुर्गंधक सहवाससे पृथं रहनेवाले बहुत अच्छे हैं जैसे अंत्यजोंकी दुर्गंधके सहवाससे निर्मलबुद्धि नहीं होती वैसे तुम और तुम्हारे संगियोंकी भी बूद्धि नहीं 'बढ़ेती जैसे रोगकी अधिकता और बूद्धिके स्वल्प होनेसे धर्मानुष्ठानकी बाधा होती है वैसे ही दुर्गंधयुक्त तुम्हारा और तुम्हारे संगियोंका भी वर्तमान होता होगा (स०पृ० ४४९) . (२१)" ईसाई मतका सन्मान !" (क) इस लिये असंभव बात कहना ईसाकी अज्ञानताका प्रकाश करता है भला जो कुछ भी ईसामें विद्या होती • * " स्वामीजी तो सबको तारनेवाले हैं ! इसीलिए उन्होने किसी मतकी भी प्रशंसा करनेमें त्रुटि नहीं रखी !!" (लेखक)
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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