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७३ स्वामीजी कहते हैं कि - " जल छानके पीना क्षुद्रजंतु - ओंको बचाना ही दया नहीं कहाती " हम पूछते हैं कि, जैन मतके किस ग्रंथ में लिखा है कि, जल छानकर पीना और क्षुद्र जंतुओं को बचाना मात्र ही दया है । स्वामीजीने यदि जैन ग्रंथोंका अवलोकन किया होता तो उनको मालूम होता किपंचेंद्रिय से लेकर एकेंद्रिय जीवकी रक्षा और उनपर दया भाव रखने के सदुपदेशका केंद्र एक जैनधर्म है !
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इसके आगे स्वामीजी कहते हैं कि-" इस प्रकारकी दया जैनियोंका कथन मात्र ही है क्योंकि वैसा वर्त्तते नहीं " हम कहते हैं कि, कदापि जैन लोग अपने शास्त्रोंके सात्विक दयामय उपदेशका पालन न करें तो, उसमें शास्त्रका क्या अपराध हैं ? ( चहुतसे समाजी महाशय स्वामीजी के भक्त होने पर भी उनके उपदेशका पालन नहीं करते तो, क्या इसमें स्वामीजीको दोषी ठहराना चाहिये ? उदाहरण के लिए देखो, स्वामीजीने एक स्त्रीको ११ पति बनाने तककी आज्ञा दी है ! परंतु शोक कि, उनके दो तीन लाख भक्तोंगे से आजतक एक भी ऐसा दृष्टिगोचर नहीं हुआ, जिसने उक्त आज्ञाको पाल कर दिखाया हो ! और पालकर दिखावे ऐसी आशा भी नहीं!! फिर स्वामीजी के चलाए नियोग जैसे पवित्र मार्गपर भी उनके बहुत से भक्तं पांव रखते हिचकते है ! स्वामीजीने तो, संन्यासी होकर भी विधवाओं पर बड़ी दया की थी ! परंतु इनके भक्तां हृदय तो इतने कठोर हो रहें है कि, बिचारी घरमें होनेवाली अनाथ विधवाओंकी होन दशा और उष्ण श्वास एवं करुणामय दीन स्वर से भी उनपर कुछ असर नहीं होता !!!) • स्वामीजी जैन शास्त्रों के समीक्षक बने हैं या जैनोंके ? यदि किसी शिथिलाचारी जैन व्यक्तिपर उनका आंक्षेप है तो,
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