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________________ ७४ । हमारा उसमें कुछ विवाद नहीं; हमारा तो विचार केवल जैन शास्त्रों के संबंध है. धर्मकी मीमांसा, किसी व्यक्तिगत आचरणपर निर्भर नहीं हो सकती ! अन्यथा किसी महाशयका. वेश्या प्रेमी होना भी स्वामीजीके वैदिक धर्मको अवश्य ही लांछित कर डालेगा !! [ख] • "क्या मनुष्यादि पर चाहे किसी मतमें क्यों न हो दया करके उसको अन्न पानादिसे संस्कार करना और दूसरे मतके विद्वानोंका मान्य और सेवा करना दया नहीं ? स्वामी जीका यह लेख बडा ही परामर्श करने योग्य है ! दयाका रहस्य बतलाते हुए स्वामीजी महाराज उक्त लेखसे. मध्यस्थ संसारको दो वातोंका उपदेश कर रहे हैं। (१) मनुष्य मात्रका (चाहे वह किसी धर्ममें विश्वास रखनेवाला हो) अन्नपानादिसे सत्कार करना. अर्थात् नंगेको वस्त्र, भूखेको अन्न, प्यासेको पानी देना. (२) अन्यमतके. विद्वानोका मान और सेवाका करना. ___स्वामीजीके यह दोनो ही उपदेश निःसंदेह मानने योग्य हैं। इस प्रकारके सदुपदेष्टाओंका कौन ऐसा कुत्सित पुरुष है जो हृदयसे धन्यवाद न करे ? जिस वक्त इस प्रकारके सदुपदेशोंकी निर्मल धारा भारतमें वहती थी उस वक्त शांतिका सम्राट भारत ही था! परंतु हम अपने पाठकोंको प्रथम इतना बतलाना चाहते हैं कि, अन्यमतके विद्वानोंका मान और सेवा करनी इस दूसरे उपदेशपर स्वामीजीने स्वयं कितना अमल किया है। क्योंकि उनके लेखानुसार कदापि जैन मतमें तो अन्य मतके विद्वानों का मान और सेवा करनी न भी हो, परंतु स्वामीजी
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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