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________________ सके ! उक्त गाथाका सरल और स्पष्ट इतना ही अर्थ है कि-*" हे जीव ! यदि तूं तप, शास्त्राभ्यास और सुपा दान आदिमें से कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं तो, क्या तूं इतना भी नहीं कर सकता ? अर्थात् समझ सकता कि, एक अरिहंत' देव अर्थात् सर्व दोष रहित ईश्वर ही उपासना करने योग्य । है." हम नहीं समझते कि, उक्त उपदेशमें स्वामीजीने क्या बुराई समझ कर इतनी उछल कूद की ? इसके अनंतर समीक्षकसे लेकर जो लिखा गया है वह विना सिर पैरका है! क्योंकि उक्त गाथाके अर्थके साथ उसका कुछ भी संबंध नहीं!! इसपर विचार करना भी समयको व्यर्थ खोना है! यद्यपिसे लेकर-दया कहाती है-तकके लेखमें स्वामीजी जैनोंको क्या समझा रहे हैं ? यह कुछ समझमें नहीं आता ! क्या दुष्ट पुरुषको दंड देना जैन अनुचित समझते हैं ? जैनोंकां. तो कथन है कि, निरपराध प्राणीको कदापि सताना न चाहिये, और प्राणिमात्र पर दया रखना मनुष्यका सबसे उत्तम कर्तव्य है. हां! अपनेसे छोटे तथा निरपराध प्राणियोंको अहंकारमें आकर पांवके तले कुचल डालने, तथा स्वामीजीकी तरह "हे ईश्वर ! आर्योंके शत्रुओंका नाश कर! उनको खुशक. लकड़ीकी तरह जला डाल ! " इस प्रकारके निंदनीय उपदें। शोंको जैनोंने अपने शास्त्रों में स्थान नहीं दिया ! * षष्ठी शतकका शुद्धपाठ तथा उसकी व्याख्या-" जई न कुण सि तव चरणं, न पढसि न गुणेसि देसि नो दाणं । ता इत्तिअं न'सक्कसि, जं देवो इक्कु अरिहंतो ॥ २॥" व्याख्या-यदि न करोषि तपश्चरणं, न पठसि, न गुणसि, न ददासिं दानं, तत् एतावन्मात्रं कर्तुं न शक्रोपि ? यद्देव एकोऽहन्नेव पूज्यो ध्येयश्चेति गाथार्थः ॥ २॥.
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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