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७१ वंदना भी न करनी । तीसरा "आलपन" अर्थात् अन्यमत वालों के साथ थोड़ा बोलना । चौथा " संलपन" अर्थात् उनसे वार २ न बोलना । पांचवां "उनको अन्न वस्त्रादि दान " अर्थात् उनको खाने पीनेकी वस्तु भी न देनी । छठा "गंधपुष्पादिदान ". अन्यमतकी प्रतिमा पूजनके लिये गंध पुष्पादि भी न देना । ये छः यतना अर्थात् इन छ: प्रकारके कर्मोंको जैन लोग कभी न करें" (समीक्षक) अब, बुद्धिमानोंकों विचारना चाहिये कि इन जैन लोगोंकी अन्य मतवाले मनुष्योपर कितनी अदया, कुदृष्टि और द्वेष है। जब अन्य मतस्थ मनुष्योंपर इतनी अदया है तो फिर जैनियोंको दयाहीन कहना संभव है क्यों कि अपने घरवालोंकी ही सेवा करना विशेष धर्म नहीं कहाता उनके मतके मनुष्य उनके घरके समान हैं इसलिये उनकी सेवा करते अन्य मत-- थोंकी नहीं फिर उनको दयावान् कौन बुद्धिमान् कह सकता है?।
[ग] स्वा० द-विवेक.१०८में लिखा है कि "मथुराके राजाके नमुची नामक दीवानको जैनमतियोंने अपना विरोधी समझ कर 'मारडाला और आलोयणा करके शुद्ध हो गया । क्या यह भी दया और क्षमाका नाशक कर्म नहीं है ? जब अन्य मतवालों पर प्राण लेने पर्यंत वैर बुद्धि रखते हैं तब इनको दयाके स्थानपर हिंसक कहना ही सार्थक है । [स० प्र० पृ० ४२७-२८].
. समालोचक-जिन अक्षरोंके नीचे हमने लंबी लकीर बैंची है उनका ऊपर लिखी प्राकृत गाथाके साथ. कुछ भी. संबंध नहीं है, गाथामें ऐसा कोई भी पद नहीं, जिसका स्वामीजीका लिखा हुआ " सुगुरु सुधर्म " इत्यादि अर्थ हो.