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[क] मूल-जइन कुणसि तवचरणं नपढसि नगुणेसि देसि नो दाणम्। 'ता इत्तियन सक् किसिज देवा इक्के अरिहंतोषष्ठी. सू. २॥
हे जीव जो तूं तपचरित्र नहीं कर सकता, न सूत्र पढ़ सकता, न प्रकरणादिका विचार कर सकता और सुपात्रादिको दान नहीं दे सकता तो भी तूं देवता एक अरिहंतही हमारे आराधनाके योग्य मुगुरु मुधर्म जैनमतमें श्रद्धा रखना सर्वोत्तम 'घात और उद्धारका कारण है ॥ २॥ (समीक्षक) यद्यपि 'दया और क्षमा अच्छी वस्तु है तथापि पक्षपातमें फसनेसे दया अदया और क्षमा अक्षमा होजाती है इसका प्रयोजन यह है कि किसी जीवको दुःख न देना यह वात संभव नहीं हो सकती क्योंकि दुष्टोंको दंड देना भी दयामें गणनीय है, जो एक दुष्टको दंड न दिया जाय तो सहसों मनुष्योंको दुःख प्राप्त हो इसलिये वह दया अदया और क्षमा अक्षमा होनाय ।
सब प्राणियोंके दुःखका नाश और सुखकी प्राप्तिका उपाय करना दया कहाती है। केवल जल छानके पीना क्षुद्र जंतुओंको बचानाही दया नहीं कहाती किंतु इस प्रकारकी दया जैनियोंके कथन मात्र ही है क्योंकि वैसा वर्तते नहीं।
. [ख] क्या मनुष्यादिपर चाहे किसी मतमे क्यों न हो दया करके उसका अन्नपानादिसे सत्कार करना और दूसरे मतके विद्वानोंको मान्य और सेवा करना दया नहीं है ? जो इनकी सच्ची दया होती तो " विवेकसार" के पृष्ठ २२१ में देखो क्या लिखा है " एक परमतीकी स्तुति" अर्थात् उन का गुणकीर्तन कभी न करना । दूसरा " उनको नमस्कार " अर्थात्