SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६९ देखा जाय तो बड़ा ही सरस औरं अक्षरशः सत्य है. इसका विचार हम कहीं अन्यत्र करेंगें. इसके आगे स्वामीजीने कुछ ईश्वर और कर्म, तथा उनके फल देनेके संबंध में लिखा है; उसके विषय में हम कहीं अन्यत्र विचार करनेके लिए प्रतिज्ञा चद्ध होते हुए यहां पर पाठकोंसे इतना ही निवेदन करते हैं कि, उक्त विषय के संबंध में स्वामीजी महाराजने जो कुछ भी लिखा है, वह केवल अरण्य रोदनके समान है ! सच पूछो तो स्वामीजी दो पहर में ही भूले फिरते मालूम देते हैं ! जितने भी पूर्व और उत्तर पक्षोंद्वारा उन्होंने जैन मतका प्रतिपादन और प्रतिवाद किया है, वह सबका सब सचमुच ही तेल के शिरपर कोल्हूकी मिसालसें उपमित करने योग्य है !! " "पष्ट शतक और स्वामी दयानंद" षष्ठी शतक जैनमतका एक अर्वाचीन ग्रंथ है, जैनोंके किसी अंग या उपांगमें इसकी गणना नहीं है, इसलिये यह उतने ही अंशमें प्रमाण करने योग्य है, जितना कि 'जैनमतके सर्वमान्य सिद्धांत ग्रंथों के अनुकूल हो. यह ग्रंथ प्राकृत भाषा में है, इसकी १६० गाथा हैं, इसके निर्माता नेमिचंद्र नामके - कोई जैन गृहस्थ हैं । यह प्रायः संग्रह ग्रंथ है । इसकी कित-नीक गाथाएं उद्धृत करके स्वामी दयानंदजीने उनकी समीक्षा की है । उद्धृत गाथाओं का पाठ बहुधा अशुद्ध है ! उनका अर्थ करनेमें तो स्वामीजीने प्राकृत भाषाके ज्ञानमें अपनी कीर्तिको खूब ही बढ़ाया है !! उनपर जो समीक्षा की गई है - वह, बड़ी ही निर्बल और बिना सिर पैरकी है ! ! ! गाथार्थ के साथ उसका अणुमात्र भी संबंध नहीं है । उदाहरणके लिए- उनमे से कुछ गाथाएं यहां पर उद्धृत की जाती हैं ।
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy