________________
. ६८ एक दफा आत्यंतिक विनाश हो चुका तो फिर उनकी उत्पत्ति किस प्रकारसे हो सकती है ? यदि नहीं, तब तो जीवमें कर्म कर्तृत्वके संबंधको नित्य माननेवाले स्वामी महोदयको अपने कल्पित मंदिरमें प्रवेश करनेके लिए कोई नवीन ही मार्ग दंडना. चाहिये था ! हम नहीं समझते कि, कर्म नित्यत्वके सिद्धांतको स्वामीजीने किस पाठशालामें बैठ कर अध्ययन किया होगा ? कर्मको नित्य कहना सचमुच व्यभिचारीको ब्रह्मचारी कहने के समान है ! इसपर बुद्धि के पीछे लाठी लिए फिरनेवाले बहुतसे समाजी महाशय कह उठेंगे कि, स्वामीजीन कर्माको नित्य नहीं कहा, किंतु जीवमें कर्म और कर्तृत्व शक्तिके संघको नित्य कहा है । इसलिए कर्म और कर्तृत्व शक्ति नित्य नहीं, किंतु. इनका संबंध नित्य है ! इसपर हम पूछते हैं कि, यदि कर्तृत्व. शक्ति और कर्म नित्य नहीं, तो फिर इनका विनाश क्यों नहीं ? यदि विनाश होता है तो फिर कर्तृत शक्ति, कहांसे आवेगी ? जो कि, मुक्तात्माको फिर दुःखमय संसारका मूं दिखलावे ! ! अस्तु ! निप्पामाणिकषु प्रमाणपरतंत्राणामस्माकं मौनमेव श्रेयः॥
यहांपर हम पाठकोंको इतना अवश्य बतला देते हैं कि, जैन शास्त्रोंमें जिस प्रकार कर्मका लक्षण, एवं स्वरूप, बतलाया है; स्वामीजीका कथन उससे कोसों दूर है ! जैनमतमें कर्मको द्रव्य माना है, अर्थात् एक प्रकारके जई परमाणुओंमे ही जैनमतमें कर्म व्यवहार किया जाता है. जैनोंका कथन है कि, शुभ-एवं-अशुभ अध्यवसायसे जीवके साथे कर्म परमाणु संबंधित होकर उसकी ज्ञान दर्शनादि स्वाभाविक अनंत शक्ति-. योंको तिरोहित कर देते हैं. यह कथन यद्यपि ऊपरसें कुछ 'शुष्क और अलंकारिकसा प्रतीत होता है, परंतु विचारसे