SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ सज्जनो ! 'आत्यंतिको वियोगस्तु, कमणां मोक्ष उच्यते । ऐसे अवाध्य सिद्धांतको भी मनमानी कल्पना से खंडन करनेमें स्वामीजीने तनिक भी संकोच नहीं किया, इसलिए उनको जितना धन्यवाद दिया जावे उतना ही न्यून है !!! [ग] स्वामीजी कहते हैं कि, जीव और कर्मका संबंध छिलके और बीज के समान नहीं हैं । परंतु स्वामीजीने इसके विपयमें किसी प्रमाणका उल्लेख नहीं किया ! फिर स्वामीजी, जीवके साथ कर्मका समवाय संबंध बतलाते हैं; इससे मालूम होता है । कि, स्वामीजी क्रिया विशेषको ही कर्म समझ रहे हैं ! क्योंकि क्रिया और क्रियावालेका समवाय संबंध होता है । यदि हम स्वामीज कि उक्त कथनको थोडे समय के लिए मान भी लेवें तब तो स्वामीजीका " इससे अनादि कालसे जीव और उसमे कर्म . और कर्तृत्व शक्तिका संबंध है " यह कथन बहुत ही असंगत होगा ! क्योंकि, द्रव्योत्पत्ति के उत्तर दूसरे क्षण में गुण मौर कर्मकी उत्पत्ति होती है । ( यह उसी दर्शनका सिद्धांत है, जिसके आधारपर स्वामी महोदय जीव और कर्म इन दोनोंका समवाय संबंध बतला रहे हैं । ) यदि ऐसा न माना जाय तब तो इनका आपस में कार्य कारण भाव नहीं बन सकता ! इसलिए जिस समय जीवमें कर्म उत्पन्न हुआ होगा उसके एक क्षण अथवा अधिक कालतक जीवको निष्कर्म ( कर्मरहित ). अवश्य स्वीकार करना होगा । ऐसा माननेमें एक तो यह दोष है कि, जब आत्मा प्रथम कर्म रहित था तो उसमें पीछेसे कर्म कहांसे आए ? दूसरा दोष यह है कि, जब उक्त सिद्धांतसे कर्म अनित्य हुए तब उनका नाश भी अवश्य होगा ! नाश हुई वस्तुकी उत्पत्ति वंध्या पुत्रके समान है ! अर्थात् जब कमौका X
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy