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________________ मुक्ति होगी तो सदा नहीं रह सकेगी और कर्म कर्ताका नित्य संबंध होनेसे कर्म भी कभी न छूटेंगे " [स०प्र०पृ०४२४ ] ...' (प्र०) जैसे धान्यका छिलका उतारने वा अमिके संयोग होनेसे वह बीज पुनः नहीं उगता इसी प्रकार मुक्तिमे गया हुआ जीव पुनः जन्म मरण रूप संसारमे फिर नहीं आता । (उ०) जीव और कर्मका संबंध छिलके और बीजके समान नहीं है किंतु इनका समवाय संबंध है इससे अनादि कालसे जीव और उसमें कर्म और कर्तृत्व शक्तिका संबंध है" इत्यादि [सं० प्र० पृ० ४२४ ] समालोचक-सज्जनो ! जिन अक्षरोंके नीचे हमने लकीर बैंची है उनका अर्थ स्वामी महोदयकी बुद्धिके सिवा और कुछ नहीं हो सकता ! स्वामीजी लिखते हैं कि-" यहां भी जैनियोंके तीर्थंकर भूल गये " परंतु-"जैनी लोग जगत जीव जीवके कर्म और बंध अनादि मानते हैं." स्वामीजीके इस लेखको जैन धर्मका कोई विज्ञपुरुष यदि देखे तो सचमुच ही वह स्वामीजीको महर्षि पदसे भी एक हाथ ऊंचे सिंहासनपर बैठाए विनां न रहे ! स्वामीजीकी योगविभूतिको हम शतशः धन्यवाद देते हैं कि, जिसकी महिमासे वेदार्थ ज्ञानके सिवा जैन तत्त्वोंका ज्ञान भी उनको निराकारको तर्फसे ही प्राप्त हुआ! स्वामीजीके इस प्रकारके बहुधा असमंजस लेखोंको देख कर परलोकवासी भट्ट मॅक्षमूलरका कथन अधिकांश सच्चा मालम देता है. किसी समय देवसमाजके नेता अग्नि होत्रीजीके साथ भट्ट मॅक्षमूलरका पत्रव्यवहार हुआ था वह " स्वामी दयानंद सरस्वतीका वेद भाष्य और अध्यापक मॅक्षमूलर" शीर्षक
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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