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________________ द्वारा हिन्दीकी प्रसिद्ध सरस्वती नामा मासिकपत्रिकामें छपा है,. पत्र यद्यपि इंगलिश भाषामें थे परंतु सम्पादक महोदयने सर्व साधारणके ज्ञानके लिए उनका हिन्दी भाषामें अनुवाद करके छापनेकी कृपा की है, उनमेंसे एक पत्रको हम यहांपर उद्धत करते हैं.. . . : . ७- नॉर हेम गार्डेन्स ऑक्सफर्ड २४ फरवरी, १८९१. श्रीमान् महाशयजी! आपने जो कागज पत्र भेजे उनके लिये मैं आपकों हृदयसे धन्यवाद देता हूँ। दयानंद सरस्वतीके विषयका लेख पढ़कर मेरे वे संदेह पुष्ट हो गये जो मेरे चित्तमें उनके संबंध थे । मै अभी तक समझता था कि धार्मिक विषयोंमे वे बड़े ही कट्टर या उससे भी कुछ अधिक थे। अत एव वे अपने ऋग्वेद भाष्यके उत्तर दाता नहीं। परंतु मुझे यह जान कर बड़ा ही दुःख हुआ कि वे अपने धार्मिक नोशकी आडमें कोई चाल भी चलते थे । तथापि मै यह माने विना नहीं रह सकता कि उनमें कुछ अच्छी बातें भी थीं और अन्य सुधारकों की तरह वे भी अपने अनुयायियों और खुशामदियों द्वारा गुमराह कर दिये गये थे। बड़े ही दुःखकी बात है कि उनके किये गये ऋग्वेद और यजुर्वेदके भाष्योंपर इतना अधिक धन व्यय किया गया । ये दोनों भाष्य उनकी वहकी हुई. बुद्धिकी निपुणताके नमूने और सौगात हैं। मुझे इस बातपर आश्चर्य नहीं जो केशवचंद्रसेन दयानंद सरस्वतीसे सहमत. नहीं हो सके। . ... .. ... आपका मॅक्षमूलर ... [ सरस्वती भाग १३ संख्या १० पृष्ठ ९५.४ ]
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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