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________________ फिर आगे अनंत शब्दका असंख्य अर्थ करते हुए भी स्वामीजी भूलते हैं ! क्योंकि जैन मतमें असंख्य और अनंत संख्यामें परस्पर बहुत अंतर है. जीवकी अपेक्षासे तो स्वामीजी उक्त जैन सिद्धांतको स्वीकार करते हैं, (वोह भी.विना ही समझे ! ) ईश्वरकी अपेक्षासे नहीं ! परंतु उनको · यह स्मरणरखना चाहिये था कि, एक ईश्वरवादको जैन दर्शनमें स्थान नहीं दिया गया ! असली बात तो यह है कि, स्वामीजी अनंत शब्दके सांकेतिक अर्थको ही न . समझे उसका नित्य अर्थ मानकर ही वे व्यर्थ अंधेरा ढोते रहे ! इस दशामें जैन सिद्धांतको मिथ्या बतलाना उनका कहां तक ठीक है ? यह मध्यस्थ वर्ग स्वयं विचार लेवे. "कर्म और स्वामी दयानंद" [क] स्वा. द.-" जैनी लोग जगत्, जीव, जीवके कर्म और बंध अनादि मानते हैं यहां भी जौनियोंके तीर्थंकर भूल गये हैं क्योंकि संयुक्त जगतका कार्य कारण, प्रवाहसे कार्य और जीवके कर्म बंध भी अनादि नहीं हो सकता जत्र ऐसा मानते हो तो कर्म और बंधका छुटना क्यों मानते हो क्योंकि जो अनादि पदार्थ है वह कभी नहीं छूट सकता जो अनादिका भी नाश मानोगे तो तुम्हारे सर्व अनादि पदार्थोके नाशका प्रसंग होगा और जब अनादिको नित्य मानोगे तो कर्म और वंध भी नित्य होगा" इत्यादि-[ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४२४ ] [ख] __ ".और जब सब कर्मोके छूटनेसे मुक्ति मानते हो तो सब. कमौका छूटना रूप मुक्तिका निमित्त हुआ तब नैमित्तिकी --
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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