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· समझ लेते तो संभव था कि, उनकी जो वृथा ही अन्य मतोंपर निर्बल अपवाद लगानेकी आदत थी ! वह इस विषयको लिखकर उसपर आक्षेप करती हुई कुछ शरमाती !
प्रतिदस्तुमें अनंत पर्याय स्वीकार करनेको स्वामीजी अविद्या और बालक पनकी बात बतलाते हैं ! उसमें आप युक्ति देते हैं कि, जो वस्तु अंत अर्थात् मर्यादावाली होती है उसके संबंधि भी अंतवाले ही होते हैं ! :परंतु स्वामीजीका यह कथन उनकी जैनमत संबंधि मुग्धताका पूर्ण सूचक है ! जिस प्रकारसे जैन मंतव्यको दिखा कर स्वामीजी उसका खंडन करते हैं, जैन इस प्रकारसे मानते ही नहीं ! जैनोंका कथन है कि, पर्यायकी अपेक्षासे वस्तु प्रतिक्षण परिवर्जनशील है, ऐसा कोई समय नहीं है कि, जिस समय वस्तुमें फेरफार न होता हो, अन्यथा जो वस्तु आजसे दश वर्ष पूर्व देखी है आज. उसमें अंतर क्यों देखा जाता है ? यदि परमाणुओंमें परिवर्तन न होता हो तो उसके समुदायमें कहांसे आया ? इसलिए हर समय वस्तुमें फेरफार होता रहता है । यदि ऐसा न हो तो, वस्तु, सदा एक रूपमें ही रहनी चाहिये ! आजसे एक हजार वर्ष पूर्वकी बनी हुई किसी एक वस्तुमें आज तक कितना फेरफार हो चुका है इसकी संख्या क्या स्वामीजी अथवा अन्य कोई कर सकता है ? यदि नहीं तो, न मालूम जैनोंका वस्तुमें अनंत पर्याय मानना स्वामीजीको क्यों दुःखा?
"अंतवाली वस्तुके संबंधि भी अंतवाले होते हैं" इस कथनसे न मालूम, स्वामीजी, जैनोंके किस सिद्धांतका खंडन करते हैं ? क्या जैन, पर्यायको नित्य मानते हैं ? जैनोंने तो पर्यायकी अपेक्षासे ही पदार्थको अनित्य (परिणामशील)बतलायाहै।'