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जैन सिद्धांतमें वस्तुका सर्वथा उच्छेद स्वीकार नहीं किया । ग़या, किंतु उत्पत्ति और विनाश रूप पर्यायके होनेपर भी द्रव्य रूपसे पदार्थ स्थिर रहता है। इसलिये पदार्थ मात्र, उत्पत्ति-स्थितिविनाश इन तीन अवस्थाओंसे युक्त है। सृष्टिको द्रव्यकी अपेक्षासे अनादि अनंत और पर्यायकी अपेक्षा सादि सांत . कथन करना जैनोंका बहुत उचित प्रतीत होता है। क्योंकि, - यदि हम विश्व समुदायको लेवें तव तो, यह अनादि अनंत है
वह समस्त पदार्थोंका समुदाय है, यह समुदाय हर समय . वैसेका वैसा ही बना रहता है । इसलिए समुदाय रूपसे यह विश्व अनादि और अनंत है। यदि उसमेंसे किसी एक भागकी तर्फ दृष्टि करें-तो उसमें हर :समय फेरफार होता देखनेमें आता है, इसलिए इस- अपेक्षासे हम संसारको सादि सांत भी कह सकते हैं।
[छ] स्वामीजी कहते हैं कि, " जैन लोगोंको स्थूल वातका भी ज्ञान नहीं तो परम सूक्ष्म सृष्टि विद्याका बोध कैसे हो सकता है ? " इससे हमारे पाठक यह तो समझ गये होंगे कि, स्थूल सूक्ष्म सब प्रकारके ज्ञान भंडारकी ताली विधाताने स्वामीजीके ही सपुर्द की हुई थी! इस लिए जैन एवं अन्य मतके विद्वान् जो ज्ञानसे शून्य रह गये वह, स्वामीजीकी ही कृपणताका. फल है ! यदि स्वामीजी, थोडीसी भी उदार वृत्ति धारण करते तो, उनको समस्त धर्मके आचार्योंको मूर्ख कहनेके · लिए बहुतसे श्वेतपृष्ठ वृथा काले करने न पड़ते ! अस्तु ! जैनोंका पीछा छोड़कर हम, स्वामीजीसे ही सृष्टि के परम सूक्ष्म तत्त्वको समझनेकी प्रार्थना करते हैं ! परंतु स्वामीजीका नाम लेनेपर भी उनके ग्रंथों तक ही पहुंचना होगा ! इसलिये, चलो