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है!। इस विषयमें हम अन्यत्र लिखनेके लिए पाठकोंसे प्रतिज्ञाबद्ध हो चुके हैं क्यों कि, यह विषय बड़ा विस्तृत और गंभीर है ! यहां पर तो हम " परमाणु स्वभावसे पृथक् और
जहरूप हैं " स्वामीजीके इतने लेख परही विचार करते हैं। -~ (१) परमाणु यदि स्वभावसे ही पृथक् स्वरूप हैं तो,
उनको समिलित करनेका ईश्वरको क्या अधिकार है ? यदि उनके पृथक् स्वभावको भी संमिलित करनेमें ईश्वर समर्थ है तो, परमाणुओंके जड़ स्वभावको बदलकर उन्हें चेतन क्यों नहीं बना देता?
(२) परमाणुओंका पृथक् स्वभाव, नित्य है ? अथवा अनित्य है ? यदि नित्य माना जाय तब तो स्वामीजीको सृष्टिसेही हाथ धोने पड़ेंगे। क्यों कि, विना परमाणुओं के मेलसे सृष्टि, हो नहीं सकती! और मेल हुआ तो, उनका पृथक् स्वभाव गया ! इसलिए नित्य पक्षको त्यागकर यदि अनित्य पक्षको ही स्वीकार किया जावे. तो, हम पूछते हैं कि, उसको किसने बनाया ? कब और क्यों बनाया ? इसका उत्तर खामीजीके किसी पुस्तक रत्नसे मिले ऐसी तो आशा पाठकोंको स्वप्नमें भी न करनी चाहिये । हां यदि उनके भाषा संग्रहको ही समझनेकी हममें योग्यता नहीं, तब तो उन ग्रंथोंका ही दुर्भाग्य समझना चाहिये !! सज्जनो ! स्वामी दयानंद सरस्वतीजी जैन सिद्धांतसे कुछ भी परिचय नहीं रखते थे ! हमारा यह कथन, किसी पक्षपातको लेकर नहीं है, किंतु स्वामीजीका उक्त लेख ही मध्यस्थ समाजके समक्ष मूंह फाड़ 'फाड़कर उनकी अनभिज्ञताकी साक्षी दे रहा है । यदि स्वामीजी जैन मतका थोड़ासा भी ज्ञान रखते होते तो, उनको इस प्रकारके इंद्रजालकी रचना करनी न पड़ती ! सृष्टीके विषयमें । जैन सिद्धांत बड़ाही सरल और स्पष्ट है।