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नंदजी तो, कुक्कुटमिश्रकी तरह जैनग्रंथोंकी सुगंधि मात्र से ही कृतकृत्य होकर उनके खंडन के लिए कूद पड़े हैं ! परंतु "लेने गई पूत और खो - आई खसम " वाली कहावत से नैनों की पोल खोलते खोलते स्वामीजी, अपनी ही पोल खुलां बैठे ! ! स्वामी महोदयका निरूपण किया हुआ सप्तभंगीवाद इस बातका-पोल खुलनेका बड़ा ही प्रौढ साक्षी है !
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सज्जनो ! मयूरका 'नृत्य देखने में लोगोंकी जितनी अभिरुचि होती है, उससे द्विगुण अरुचि उसके पिछले भागको अवलोकन करनेसे उत्पन्न होती है ! हम स्वामीजीके वाक्यपर विश्वास कर सकते हैं, यदि वर्तमान समय हमारा गला न दबावे ! वर्तमान समय में जैनमतके सहस्रों ग्रंथ प्रचारमें आए हुए देखे जाते हैं, और जैन समाज के अग्रेसर इनको और भी प्रचार में लाने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न कर रहे हैं । कुमारिल भट्टसे लेकर प्राचीन जितने आचायोंके ग्रंथ उपलब्ध होते हैं उन सबमें जैन सिद्धांत का उल्लेख और प्रतिवाद पाया जाता है ! यदि स्वामीजी के लेखानुसार, जैन लोग अपने ग्रंथों को छिपा रखते थे तो, उनमें नैनमतका उल्लेख किस तरह किया गया ? जैन ग्रंथोंको गपौडाध्याय बतलाना स्वामीजीके लिए कोई नई बात नहीं ! परपुरुपके साथ अवाच्य व्यवहारमें यदि संकोच होगा तो, पतित्रताको होगा ! अन्यका तो वह .. कर्तव्य ही है !!
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[ च ं ]
स्वामीजी जगतको अनादि स्वीकार करना, निरा: झूठ: बतलाते हैं ! परंतु इसपर यूं कहना कि; जगत्को सर्वथा सादि मानना ही निरा झूठ है, हमारे ख्यालमें कुछ अधिक उचित प्रतीत होता है.। क्योंकि जो लोग सृष्टिको 'ईश्वर की कृति...
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