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४८ करता नजर आता है। जो लोग, आजसे अनुमान तीस वर्ष प्रथम, उत्तरध्रुव प्रदेशमें मनुष्यों की वसती के घोर विरोधी थे, वही आज कह रहे हैं कि, उत्तरध्रुव प्रदेश किसी समय मनुष्य वसती के योग्य था, अर्थात् वहां मनुष्य निवास करते थे। हमारे विचारमें तो जिन लोगोंका यह मत है कि, पृथिवी एतावन्मात्र ही है, निस्संदेह वे लोग भ्रममें हैं ! समय आवेगाकि, उन्हे बलात्कारसे अपनी इस निर्बल मान्यता को पीछे खेंचना पड़ेगा ! "भला ऐसे अविद्वान् पुरुष जगत् को अकर्तृक और ईश्वरको न माने तो क्या आश्चर्य है" स्वामीजीका यह लेख कुछ अधिक विचार से संबंध रखता हो ऐसा नहीं ! इस लिए इसपर विशेष कुछ न कहकर पाठकों से इतना ही निवेदन करते हैं कि, ईश्वरको तो जैन मानते हैं, परंतु स्वामीजी के माने हुए ईश्वरसे उसका अंतर बहुत है ! इसका रहस्य कहीं अन्यत्रं प्रदर्शित किया जावेगा.
[घ स्वामीजी के "इसी लिए जैनी लोग अपने पुस्तकोंको" इत्यादि लेखसे विदित होता है कि, उन्होंने संसार पर बहुत उपकार किया ! आशा नहीं कि, उनके इस ऋणसे सभ्य संसार सद्यःमुक्त हो सके ! क्योंकि अपनी पोल खुल जाने के भयसे जैनी लोग जिन अपने पुस्तकोंको अन्यमतके विद्वानोंसे छिपाते थे, उनको देखने के लिए देने से इनकार करते थे, स्वामीजीने किसी न किसी तरह उन सबको देखकर जैनोंकी
पोल खोल ही दी.! विशेष हर्षकी बात तो यह है कि, "स्वा-. · मीनी" कुमारिल भट्टसे भी प्रथम नंबर में निकले ! क्योंकि,
कुमारिल भट्ट तो, अपने जीवनका आधा भाग बौद्धग्रंथों के अभ्यासमें लगाकर उनके खंडनमें प्रवृत्त हुए थे! स्वामी दया--