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सज्जनो ! यह सम्यक्त्वसार नामके छोटेसे प्राकृत ग्रंथका दूसरा श्लोक है, परमार्थ - तत्वका विचार करनेवाले जीवमें वैराग्य गर्भित प्रथम किस प्रकारकी भावना होती है ग्रंथकारने परमात्माकी स्तुतिद्वारा इस बातका वर्णन इस लोकद्वारा किया है. इसका अर्थ यह है कि, हे स्वामिन् ! चार प्रकारकी (देव, मनुष्य, नरक और तिर्यक् ) गतिरूप अनादि अनंत घोर जंगकके समान इस संसार में मोहनीय आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके विपाक ( फल ) के वशसे यह जीव भ्रमण कर रहा है ! अर्थात् कर्मों के परिणाम वशसे यह जीव मनुष्य, पशु आदि अनेक जन्मोंको धारण करता हुआ इस संसारमें भ्रमण कर रहा ! | अब हम अपने पाठकोंसे निवेदन करते हैं कि, इस लोक में क्या बुराई है ? जो इसपर "स्वामीनी" ने इतना हल्ला मचाया ! ! क्या संसार में ऐसा कोई आस्तिक पुरुष ( चाहे वो किसी धर्मको माननेवाला हो ! ) है ? जो इस कथनका विरोधी हो ! हां ! यदि " स्वामीजी "को जैनोंके नामसे ही चिढ़ है तो उनका (जैन ग्रंथोंका) क्या दोष ? क्योंकि नेत्रोंके होनेपर ही सूर्यका प्रकाश काम में आसकता है ! कथन है कि, जिसकी आदि नहीं और नाही कभी अंत होनेवाला है ऐसे आदि और अंतसे शून्य इस संसार समुद्र में शुभाशुभ कर्मों के प्रभावसे भ्रमण करते हुए इस जीवको अनंत पुद्गलपरावर्त्त काल व्यतीत हो चुका है, और होगा, जबतक कि यह जीव; ज्ञान दर्शन और चारित्ररूप तत्रयकी आराधना से समस्त कर्म का क्षयः करके मोक्षको प्राप्त नहीं होता !
प्यारे सभ्य पाठको ! जैनोंका
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'जैन ग्रंथों में पुद्गलपरावर्त्त कालका- परिमाणं इस प्रकारसे बतलाया है । नितांत सूक्ष्मकालका नाम समयं हैं, असंख्य
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