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________________ ३७ समयोंकी एक आवली होती है, १६७७७२१६ आवलीका एक मुहूर्त्त होता है, ऐसे तीस मुहत्तौ का एक दिन, पंद्रह दिन का एक पक्ष, दो पक्षका एक मास, एवं बारह मासका एक 1 वर्ष होती है । चौरासी लाख वर्षका एक पूर्वांग और इतने - ही पूर्वांगों के मिलनेसे एक पूर्व कहाता है । असंख्य पूर्वका एक पल्योपम, और दश कोटाकोटी पल्योपमका एक सागरोपम, एवं दश कोटाकोटी सागरोपमकी एक अवसर्पिणी, तथा दश कोटाकोटी सागरोपमकी एक उत्सर्पिणी, इन दोनों के मिलने से अर्थात् वसि कोटाकोटी सागरोपमका एक कालचक्र होता है । ऐसे अनंत कालचक्र का एक पुद्गलपरावर्त होता है। * इस विषय में जैनोंकी दिल्लगी उड़ाते हुए हमारे . " स्वामी महोदय " लिखते हैं-" सुनो भाई ! गणित विद्यावाले लोगों 1 जैनियोंके ग्रंथों की काल संख्या कर सकोगे वा नहीं ? और तुम इनको सच भी मान संकोगे वा नहीं ? देखो इनके तीर्थकरोंने ऐसी गणित विद्या पढ़ी थी। ऐसे२ तो इनके मतमें गुरु और शिष्य हैं जिनकी अविद्याका कुछ पारावार नहीं । " [सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४२० ] " [समालोचक ] "स्वामीजी" के कथनानुसार थोड़ी देरके लिए हम यही मान लेते हैं कि, जैनों को काल संख्याका ज्ञान नहीं था ! इन्होंने गणित विद्या नहीं पढ़ी थी । इनके गुरु बुद्धिमान नहीं थे! परंतु 'स्वामीजी' तो सर्व विद्यामें निपुण और गणित विद्याके * लोकप्रकाश नामके जैन ग्रंथके ' काललोक प्रकाश ' नामके तृतीय प्रकरणमें इस विषयका सप्रमाण बड़े ही विस्तारसे निरूपण किया है, विशेष जिज्ञासु वहांपर देखनेकी अवश्य कृपा करें । 'इसके देखनेसे पाठकोंको यह भी बात अच्छी तरह मालूम हो जायंगी कि, " स्वामी दयानंदजी "" का इस संबंध में किया हुआ जैन तीर्थंकरोंका उपहास्य कहां तक सत्य है १ . * ४
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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