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३५ सभी पदार्थ नित्यानित्य अर्थात् उत्पत्ति विनाश और स्थिति वाले माने हैं ।
सज्जनो ! विचारसे देखा जाय तो "स्वामी दयानंदजी" इसमें अधिक दोपके भागी नहीं | क्यों कि, जैन सिद्धांत से वे परिचित नहीं थे ! जैन दर्शनका उनको इतना ही ज्ञान था जितना कि संस्कृत साहित्यका भारवाहिक एक ग्रामीणको होता है ! शोक केवल इतना ही है कि, " स्वामीजी " जैन धर्म रहस्य को समझे विना ही उसके खंडनमें प्रवृत्त हो गये ! ऐसा करने से निःसंदेह मनुष्य मध्यस्थ जन समाजमें उपहासका पात्र होता है ! इसी हेतुसे यदि कोई स्वामीजी के लिये “विच्छूका मंत्र आता नहीं और सांप पकड़ने दोड़ते हैं" इस लोकोक्तिका. कथन करे तो, सचमुच ही हम उत्तर देने में असमर्थ हैं !
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संसार के लिये जैन धर्मका मंतव्य है कि ऐसा कोई भी समय नहीं था, जब कि सर्वथा इसका अभाव हुआ हो; और नाही ऐसा कोई समय आवेगा, जब कि इसका सर्वथा अस्तित्व न रहे । किंतु यह प्रवाह रूपसे सदा ही ऐसा चला आता है और ऐसा ही चला जायेगा. इसीलिये इसको अनादि ( आदि रहित ) अनंत ( अंत रहित ) कहने में आता है. संसारके प्रत्येकं पदार्थमें परिवर्तन ( फेरफार ) देखने में आता है, इसलिये यह उत्पत्ति विनाशवाला भी है; इसी हेतुसे इसको सादि सांत भी कहा जाता है. अब हम उसी प्राकृत श्लोकको यहां पर फिरसे शुद्ध लिखकर उसका अर्थ करके पाठकों को बतलाते हैं, जिसका अर्थ करते हुए "स्वामीजी " को जैनों का जगत्का अनादि मानना अच्छा नहीं लगा !
" सामि अणाइ अनंते, चउ गइ संसार घोर कंतारे | मोहाइ कम्प्रगुरुठिइ - विवागत्रसओ भमइ जीवो ॥ "