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१. सू. ३५-३६.] इन दो सूत्रों द्वारा "महर्षि वेदव्यासजी" . भी संसारको अनादि कह रहे हैं। दूसरे सूत्रके भाप्यमें "स्वामी शंकराचार्यजी" लिखते हैं कि-"उपलभ्यते च संसारस्यानादित्वं श्रुतिस्मृत्यो" अर्थात् श्रुति और स्मृतिमें संसारको अनादि बताया गया है।
"स्वामी दयानंदजी" ऋगवेदादिभाष्य भूमिकाके पृष्ठ २३ में-इस संसारको उत्पन्न हुए (१९६०८५२९७६) इतने वर्षे बतलाते हैं । हम पूछते हैं कि, इससे प्रथम यह दुनिया नहीं थी, इसका "स्वामीदयानंदजी के पास क्या प्रमाण हैं ? इतने वर्षों के पहिले यदि कुछ नहीं था तो फिर यह आया कहांसे ? यदि कहो कि, यह जगत् उसवक्त इस रूपमें (जैसा कि इस वक्त देखा जाता है) नहीं था, किंतु सूक्ष्म (कारण) रूपमें था। हम पूछते हैं कि, प्रथम यह सूक्ष्म रूप क्यों बना ? क्या इसको स्थूल रूप बुरा लगता था ? यदि स्थूलसे सूक्ष्म और सूक्ष्मसे स्थूल होना पदार्थका धर्म ही है, तो फिर ईश्वरका इसमें क्या संबंध है ? यदि कहो कि, ईश्वर करता है, तो हम पूछते हैं कि, क्यों करता है? क्या ईश्वरसे यह काम किये बिना रहा नहीं जाता ? यदि कहो कि, सृष्टिको उप्तन्न करना और नाश करना उसका स्वभाव ही है, तो, इसपर हम कहते हैं कि, इस प्रकारका ईश्वरका स्वभाव है इसमें भी क्या प्रमाण ? यदि कोई कहे कि, सृष्टिकी उत्पत्ति और नाशके बखेड़े से सदैव मुक्त रहना ही ईश्वरका स्वभाव है, तब उ समें क्या कहा जा सकता है। "उत्पत्ति तथा विनाश हुए विना कर्म नहीं रहता" इत्यादि लेखसे न मालूम " स्वामीजी " जैनोंपर क्या आक्षेप करना चाहते हैं ? क्या जैन कर्म (क्रिया)को अनित्य नहीं मानते ? जैन मतमें तो द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षासे