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[ ख ]
" स्वामीजी " ने जो ऊपर लिखे प्राकृत श्लोकका उपयोगी अर्थ बतलाया है वह " स्वामीजी " के लिए तो उपयोगी ठीक हो सकता है ! अन्यथा उनके मनमाने निर्बल आक्षेपकी दाल नहीं गल सकती ! | " जो संयोगसे उत्पन्न होता है वह अनादि अनंत कभी नहीं हो सकता " इसपर हम पूछते हैं कि, यह जगत् किसके संयोग से उत्पन्न हुआ ? यदि परमाणुओंके संयोग से इसकी उत्पत्ति कहोगे तो, प्रथम परमाणु विभक्त दशामें ( जुदे जुदे ) थे, यह अवश्य स्वीकार करना होगा ! संयोगके नाशक ( नाश करनेवाले ) गुणका नाम विभाग है । इस लिये विभागसे प्रथम भी परमाणुओं का संयोग था, यह अवश्य मानना पड़ेगा ! इसी तरह संयोग से पूर्व विभाग, और विभाग से पूर्व संयोग । इस संयोग विभागकी परंपराको अनादि माने विना छुटकारा होना असंभव है । एवं संयोग और विभाग परंपराकी कहीं सर्वथा समाप्ति हो जाय यह भी असंभव हैं । इसलिये अनादिकी तरह इसको अनंत ( अंतरहित ) भी स्वीकार करना ही पड़ेगा । इसी लिये भगवान् श्री कृष्णचंद्र कहते हैं कि- "नांतो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा " [गीता. अ. १५. श्लो. २. १९. लो. २. ] अर्थात् इस संसारका न कोई आदि है, न अंत है । तथा" को अद्धा वेद क इह प्रावोचत् कुत आयाता इयं विसृष्टिः । अर्वाग् देवा अस्य विसर्जने नाथा को वेद यतः आबभूव ॥ " [मं० १० सू १२९]
यह ऋग्वेदकी श्रुति भी संसारकी अनादि अनंतता को स्पष्ट बतला रही है । एवं " न कर्मविभागादिति चेन्नानादित्वात् । उपपद्यते चाप्युपलभ्यते च " [वेदांतदर्शन. अ. २. पा.
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