________________
३२
बना और न कभी नाश होता । ( समीक्षक ) जो संयोगसे उत्पन्न होता है वह अनादि और अनंत कभी नहीं हो सकता । और उत्पत्ति तथा विनाश हुए बिना कर्म नहीं रहता जगत् में जितने पदार्थ उत्पन्न होते हैं वे सब संयोगज उत्पत्ति विनाश वाले पुनः जगत्उत्पन्न और विनाश वाला क्यों नहीं ? इस लिये तुम्हारे तीर्थंकरोंको सम्यग् बोध नहीं था जो उनको सम्यग् ज्ञान होता तो ऐसी असंभव बातें क्यों लिखते ? इत्यादि ( पृष्ठ ४१९ ) [ क ]
देखे जाते हैं
समालोचक्क—–“स्वामीजी" प्रतिज्ञा तो यह करते हैं कि, "इनके सूत्रों के अनुसार दिखलाते हैं" और नाम लेते हैं "प्रकरण रत्नाकरें" और "रत्नसार" आदिका ! फिर ऊपरके प्राकृत पद्यको लिखा तो है " षष्ठीशतक" का और बतलाते हैं "रत्नसार" (जोकि भाषा के वाक्योंका संग्रह है) के “सम्यक्त्व प्रकाश" का ! फिर देखनेका यह है कि, "प्रकरणरत्नाकर" ( जो कि बहुतसे स्तोत्र आदि ग्रंथोंसे प्रकाशकका संगृहीत है. ) और " रत्नसार " इन दोनों ग्रंथोंमें " सम्यक्त्वप्रकाश " नामका कोई प्रकरण ही नहीं ! " स्वामीजी " ने " पष्ठीशतकको " सूत्र ( आगम ) ग्रंथ बतलाया परंतु जैनोंके किसी भी सूत्र ( आगम ) ग्रंथमें इसका उल्लेख नहीं ! और साथही आनंदकी बात यह है कि, षष्ठीशतकमें उक्त प्राकृत श्लोककी गंधमात्र तक नहीं है ! सम्यक्त्वप्रकाश प्रकरणमें गौतम और महावीर स्वामीका संवाद है " स्वामीजी " " स्वामीजी " का यह लेख तो निःसंदेह उनकी 'जैनधर्म
संबंधी विज्ञतापर प्रतिक्षण आंसू वहा रहा है ! हम नहीं कह सकते कि, "स्वामी दयानंदजी " किस आशय से जैन मतके खंडनमें प्रवृत्त हुए हैं !!