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करते हैं कि, जगत्का का ईश्वर है इस बातको कल्पना मात्र जैन, बौद्ध, तथा सांख्य और मीमांसा दर्शनमें ही नहीं बतलाया ! किंतु"को ददर्श प्रथमं जायमानमन्वस्थं यदनस्था बिभाति । सुम्या असुरसृगात्माक्वसित्को विद्वांसमुपागात्पष्टुमेतत् ॥
[१-१६४-१] . यह ऋग्वेदका मंत्र भी सृष्टिकी उत्पत्ति कथाको कल्पना प्रसूत ही बतला रहा है !। अस्तु । इस विषयको अन्यत्र लिखनेके लिये हम प्रतिज्ञा बद्ध होते हुए "स्वामीजी" के आगेके लेख पर पाठकोंका ध्यान बैंचते है.
[क] __ स्वा० द०-अब जैन लोग जगत्को जैसा मानते हैं वैसा इनके सूत्रोंके अनुसार दिखलाते हैं.
मूल--*सामि अणाई अणन्ते चनुगई संसार घोर कान्तरे । मोहाइ कम्म गुरु ठिइ विवागवसनु भमई जीवरो ॥
प्रकरण रत्नाकर भाग दूसरा.२ षष्ठी शतक ६० सूत्र२॥
यह रत्नसार भाग नामक ग्रंथके सम्यकत्व प्रकाश प्रकरणमें गौतम और महावीरका सम्बाद है ॥ [पृष्ठ ४१९]
(ख) इसका संक्षेपसे उपयोगी यह अर्थ है कि यह संसार अनादि अनंत है न कभी इसकी उत्पत्ति हुई न कभी विनाश होता है अर्थात् किसीका बनाया जगत् नहीं सो ही आस्तिक नास्तिकके संवादमें हे मूढ़ ! जगत्का कर्ता कोई नहीं न कभी
* यह प्राकृत श्लोक अधिकांश अशुद्ध है. इसका शुद्ध पाठ आगे लिखा जावेगा.