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कर्तत्वके सिवा ईश्वरके अस्तित्वका भी विरोधी है ! मीमांसा दर्शनमें फिरसे जिंदगी डालनेवाले "कुमारिल भट्ट" ने तो इस प्रकारसे ईश्वरकर्तृत्वकाःप्रतिवाद किया है कि, "उदयनाचार्य" प्रभृति उसका लेशमात्र भी खंडन नहीं कर सके। पत्युरसामंजस्यात् इस व्याससूत्र के भाग्यमें "स्वामी शंकराचार्य" का भी ईश्वरकर्तृत्व (निमित्तकारण ) के प्रतिवादका लेख देखने योग्य है ! क्या ही अच्छा होता जो "स्वामी दयानंदसरस्वतीजी" वृथा ही जैनधर्मके विषयमें अपने पांडित्यकी डुगडुगी न पीटकर, प्रथम ईश्वर कर्तृत्वके विषयमें दिये हुए कुमारिल और शंकरस्वामीके दोषोंका उद्धार कर बताते !
स्वार्थी तथा कदाग्रही लोगोंने भद्रजन समाजका " जगत्का ईश्वर:-अपौरुषेया वेदाः" इन दो बातोंमें इतना अंध विश्वास बढ़ा रक्खा है कि, इनके समक्ष इनपर विचार तो क्या, कोई चूं तक नहीं कर सकता ! कदापि कोई भूल कर इनके विषयमें कुछ लिख बैठता है तो उसके लेखपर कुछ भी विचार किये बिना ही उसको पापी, दुरात्मा और नास्तिक कहकर चिल्लाने लगते हैं!। बिचारे क्या करें ? ब्रिटिश सरकारका राज्य है ! नहीं तो " स्वामी दयानन्दजी" के कथनानुसार इनकी कृपासे उसको कालापानी अवश्य ही देखना पड़े ! ईश्वर जगत्का का है कि नहीं ? यह विषय बड़ा ही विस्तृत और गंभीर है ! इस पर स्वतंत्र लेखद्वारा हम कहीं अन्यत्र अवश्य विचार करेंगे ! यदि इस स्थानमें ही इस विषयको चर्चा जावे तो इस पुष्पका आकार बहुत बढ़ जावेगा। क्योंकि स्वामीजीके लेखके सिवा अन्य भी इस विषयसे संबंध रखने वाली बहुतसी बातें हैं जिन पर विचार करना बहुत आवश्यक है ! यहां पर हम सिर्फ इतना ही पाठकोंसे निवेदन