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२७ पुत्र व्यवहार भी हो सकता है। इस लिये निरपेक्ष ( अपेक्षासे रहित ) एक व्यक्तिमें परस्पर विरुद्ध पिता और पुत्रका व्यवहार करना जैन धर्मके मंतव्यसे सर्वथा बाह्य है। किंतु किसी
अपेक्षासे एक व्यक्तिमें भी परस्पर विरुद्ध पिता और पुत्र व्यवहार हो सकता है। एक ही देवदत्तमें अपने पिता और पुत्रको अपेक्षासे पुत्र और पिताके व्यवहारका होना ऊपर वतला दिया गया है । इसी बातको स्पष्ट रूपसे बतलानेके लिये जैन दर्शनमें " अस्ति नास्ति" आदि प्रत्येक भंगमें स्यात् ( कथंचित्-किसी प्रकार किसी-अपेक्षा ) शब्दका प्रयोग किया है । और यह सिद्धांत सर्वमान्य है । जैनशास्त्रोंमें इसी हेतुसे इसको *सावंतांत्रिक (सर्वदर्शनोमें होनेवाला) सिद्धांत बतलाया है।
स्यादस्ति घटा-किसी एक प्रकारसे धट है, स्यानास्ति घट:-किसी एक प्रकारसे घट नहीं है । इन दोनोंका हमको यही अर्थ करना होगा कि, घट अपने घट स्वरूपसे है, और पट स्वरूपसे नहीं है । यदि पट स्वरूपसे भी घटका अस्तित्व माना जाय तब तो घट और पट दोनों एक हो जावेंगे, और भेद व्यवहारका उच्छेद ही हो जावेगा। जब कि हम, किसी अपेक्षासे प्रत्येक पदार्थमें अस्तित्व और नास्तित्वका प्रतिपादन कर सकते हैं, तो इससे अर्थात् सिद्ध हुआ कि, किसी अपेक्षासे पदार्थ अस्ति नास्ति उभय रूप भी है । इसी बातको स्फुट करनेके लिये स्यादस्ति नास्ति घटः किसी प्रकारसे घट है और नहीं । यह तीसरा प्रकार कथन किया गया है।
* त्रुवाणा भिन्नभिन्नार्थान्नयभेदव्यपेक्षया । प्रतिक्षिपेयुनों वेदाः, : स्याद्वादं सार्वतांत्रिकम् ॥ . . [यशोविजयोपाध्यायाः] : .