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विश्वके यावत् पदार्थ, द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षासे अस्ति और नास्ति शब्दसे व्यवहृत किये जा सकते हैं, परंतु अस्ति और नास्ति रूप विरोधी स्वभावोंका युगपत् एक ही समयमें कथन करना असंभव है, इस रहस्यको समझानेके लिये स्यादवक्तव्यम् (किसी एक प्रकारसे कहा नहीं जा सकता) इस चतुर्थ भंगका उल्लेख किया । एवं अवशिष्ट तीन मंग भी किसी अपेक्षाको लेकर अस्ति नास्ति और अवक्तव्य इन तीन पदोंके संयोगसे बनाये गये हैं। इनका सविस्तर सप्रमाण वर्णन हम कहीं अन्यत्र करेंगे। . "स्वामी दयानंद सरस्वतीजी". जो सप्तभंगकिो अन्योन्याभाव के अंतर्निविष्ट करना, बतलाते हैं इसके विषय में हम पूछते हैं कि, पृथिवीत्वकी अपेक्षासे घट पट की एकता
और घटत्व तथा पटत्वकी अपेक्षासे उनकी मिन्नताको जिस प्रकार स्थावाद अपनी पद्धतिसे वतला रहा है, क्या इस प्रका- . रसे घट और पटके परस्पर सर्वथा भेदका व्यवस्थापक अन्योन्याभाव, भेदाभेदका समर्थन कर सकता है ? हां! यदि "स्वामीजी" का अन्योन्याभाव ही किसी दूसरे प्रकारका हो, तबतो हम कुछ कह नहीं सकते। .
जीव और जडके वर्तमान होनेसे "साधर्म्य" (एकता) और चेतनं तथा जड होनेसे “ वैधर्म्य" ( भिन्नता )" इत्यादि लेखसे जड चेतनके परस्पर भेद और अभेदको साधर्म्य वैधर्म्य नामसे कहते हुए तो " स्वामी जी " स्याद्वादकी स्पष्टता और सरलताको बड़े ही अभिमानसे स्वीकार कर रहे हैं ।। हां ! स्याद्वादका नाम लेनेसे यदि वे कलंकित होते हों तो हम विवश हैं ! एक तर्फ तो पदार्थको कुटिल बतलाना और दूसरी तर्फ उसकी: सरलताको स्पष्ट स्वीकार भी
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