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अर्थात् - किसी अपेक्षासे है, किसी अपेक्षासे नहीं किसी अपेक्षासे है और नहीं, किसी अपेक्षासे कहा नहीं · जा सकता, किसी अपेक्षासे है पर कथन करना असंभव है, किसी अपेक्षासे नहीं पर कहा नहीं जाता, किसी अपेक्षासे है और नहीं पर कहा नहीं जा सकता ।
साधारण रीतिसे तो जैनोंका यह मत बड़ा ही नीरस, अव्यवस्थित और परस्पर विरुद्ध प्रतीत होता है ! परंतु इसपर कुछ समय विचार करनेसे इसकी सरसता, सुव्यवस्था, एवं अविरोधताका महत्व बड़ी ही सरलतासे समझ में आ जाता है । जैन दर्शनको इस विषय में पूर्ण अभिमान है कि, परिणाममें दुःखका हेतु जो मिथ्या ज्ञान उससे मुक्त होनेके लिये स्याद्वाद जैसा उत्तम साधन दूसरा कोई नहीं ! अब हम इस सिद्धांत को थोड़ासा स्पष्ट करके पाठकोंको दिखाते हैं ।
बहुत से लोगों का मत है कि, जैनोंका "स्यादस्ति-स्यानास्ति " इत्यादि सप्तभंगी नय परस्पर विरुद्ध पदार्थों का एक स्थानमें समावेश कर रहा है । अतः प्रकाश और अंधकारको एक स्थान में समाविष्ट करनेवाला यह सिद्धांत केवल उन्मत्त प्रलाप मात्र ही है ! इसलिये ऐसे सिद्धांत को अपने हृदयमें स्थान देना सिवा मूर्खता के और कुछ अर्थ नहीं रखता ! परंतु हमारे विचारमें उनका यह कथन केवल भ्रांति मूलक है । क्योंकि जैनदर्शनका यह सिद्धांत ही नहीं है ।
जैन दर्शनका मंतव्य है कि, जो सिद्धांत किसी एक प्रकार ( अपेक्षा ) से सत्य प्रतीत होता है उसका विरोधी सिद्धांत भी किसी अन्य प्रकार ( अपेक्षा ) से सत्य ठहरता . है । जैसे किसी व्यक्तिमें उसके पुत्रकी अपेक्षासे पिता व्यवहार किया, परंतु उसका विरोधी उसके पिताकी अपेक्षासे उसमें