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________________ २५ नयकी अपेक्षासे यह आत्मा आनित्य, एवं प्रतिक्षण परिवर्तनशील है। इसी प्रकार संसारको भी जैनमतेमें द्रव्य और पर्यायकी अपेक्षासे अनादि अनंत और सादिसांत माना है। वस्तुमात्र जैनमतमें द्रव्य और पर्याय-सत् असत्-नित्या नित्य स्वरूप है। अर्थात् अपने अपने देश, काल, स्वभावादिकी अपेक्षासे सत् और अन्यके देश, काल, स्वभावादिकी अपेक्षासे असत् है । यथा-घट, अपने घटरूपसे तो सत् है, और अन्य पट रूपसे असत् है। इसी प्रकार सदसत् भी है । एवं पृथिवी परमाणु रूपकी अपेक्षासे, नित्य है, घट पटादिकी अपेक्षासे अनित्य है। इस प्रकार पदार्थों की जो व्यवस्था उसको बतलाने के लिये जैनमतमें स्यात् शब्द का प्रयोग किया ह। स्यात् यह अनेकांत का द्योतक अव्यय है। इसका अर्थ यथा कथंचित्-जिस किसी प्रकारसे-अथवा अपेक्षासे ऐसा होता है। कदापि प्रश्न किया जावे कि, अमुक पदार्थ सत् है? तो उत्तर मिलेगा कि, स्यात्-किसी अपेक्षासे इसीका नाम स्याद्वाद अथवा अनेकांतवाद है। वस्तु सत् ही है, अथवा असंत ही है, इस प्रकारके निश्चय अथवा आग्रहका नाम एकांत है, इससे विपरीत अर्थात् पदार्थ किसी अपेक्षासे सत् और किसी अपेक्षासे असत् भी है, इसप्रकारके कथनका नाम अनेकांतवाद है. स्याद्वादकी पद्धतिके अनुसार पदार्थके स्वरूपको बतलानेवाले मात्र सात प्रकार हैं. इनमेंसे प्रत्येक प्रकारको भंग कहते हैं. इन सातोंके समुदायको ही जैनमतमें सप्तभंगी कहा है.. . __ यथा-स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्ति नास्ति, स्यादवक्तव्यम्, स्यादस्ति चावक्तव्यम्, स्यान्नास्ति .चावक्तव्यम्, स्यादस्तिनास्ति चावक्तव्यम्॥ .
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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