________________
२४ नाम नयवाद है । पदार्थमें रहे हुए अनेक धर्मों से किसी एक धर्मको किसी एक दृष्टिसे प्रतिपादन करनेकी पद्धतिको नय कहते हैं । जैसे पुत्रकी अपेक्षासे किसी व्यक्तिको पिता कहना। सर्व प्रकारके नयों का समावेश मुख्यतया द्रव्याधिक
और पर्यायाथिक इन दो नयों में किया गया है । . द्रव्य अर्थात् वस्तु, पर्याय अर्थात् उसकी विकृति फेरफार (जैसे सुवर्ण द्रव्य-और कटक कुंडलादि पर्याय ) के बोधक जो नय उनको द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय कहते हैं। द्रव्यार्थिक नयको नैगम, संग्रह और व्यवहार इन तीन वर्नामें विभक्त किया है. तथा पर्यायार्थिक नयको ऋजुमूत्र, शब्द, समभिरुड और एवंभून, इन चार वीमें विभक्त किया है. (इनका स्वरूप अन्यत्र विस्तारसे लिखा जायगा.)
शरीरके हस्त पादादि अवयवोंकी तरह एक दूसरेसे सहानुभूति रखनेवाले इन सात नयोंके समुदायसे पदार्थकी यथावत् व्यवस्थाको सम्यकता और इसके विपरीत अर्थात् इन सातों से अपेक्षा रहित किसी एक ही नयसे पदार्थकी व्यवस्था को जैन मतमें मिथ्यात्व कहा है. जैनदर्शनका अन्य दर्शनों के साथ इतने अंशमें ही विवाद है कि, जैनदर्शन सर्व नयों (अपेक्षा) से पदार्थकी व्यवस्था करता है, और अन्यदर्शनकार किसी एक ही नयसे पदार्थकी व्यवस्थाको स्वीकार कर रहे हैं. जैसे बौद्धदर्शन आत्माको सर्वथा क्षणिक ( अनित्य ) और वेदांतदर्शन सर्वथा नित्य मानता है ! परंतु जैनदर्शनका कथन है कि, सर्वथा क्षणिक माननाभी ठीक नहीं, और सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं, किंतु कथंचित् नित्यानित्य उभय प्रकारसे ही मानना उचित है. अर्थात् द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे. यह आत्मा नित्य, एवं अजर और अमर है. तथा पर्यायार्थिक