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· २१ ण की हुई सप्तभंगीको देखकर हमे विचार होता है कि, उन्होंने सप्तभंगीकी यह अनोखी रचना जैन मतके किस ग्रंथपरसे की होगी ! क्योंकि जैन धर्मके आज कल जितने ग्रंथ ( मुद्रित अथवा लिखित ) उपलब्ध होते हैं, उनमें इस -प्रकारकी सप्तभंगीकी रचना कहीं भी देखने में नहीं आती ! संभव है ! हम " स्वामीजी" का आशय ही न समझे हों। कदापि येन केन प्रकारेण परमतकी निंदामें ही उनका अभिप्राय हो तो उसको भी कौन रोक सकता है ? परंतु "स्वामीजी" तो संसारसे चल बसे, अब पूछे तो किससे पूछे ! स्वामीजीके पृष्टपोषकोंमेंसे इनकी वर्णन की हुई सवभंगी को जैन धर्मके माननीय ग्रंथोंके द्वारा कोई समाहित कर दिखावे ऐसी हमें आशा नहीं !
[ख] . ___ अन्योनाभाव और साधर्म्य वैधय॑में सप्तमंगीका अंतर्भाव बतलाना तो "स्वामीजी "का उनकी वर्णन की हुई सप्तभंगासे भी दो कदम आगे बढ़ा हुआ है ! इस विषयमें अब हमारा कथन केवल अरण्य रोदन के ही समान है । इसमें संदेह नहीं कि, यदि " स्वामीजी " सप्तभंगी के वास्तविक रहस्यसे परिचित होते तो उनको " अन्योन्या भावमें" इत्यादि निर्बल आक्षेप करनेके लिये अपनी लेखनीको श्रम देना न पड़ता! हां ! आग्रहरूप रोगी औषधि तो विधाताके पास भी शायद ही निकले !
___" स्वामीजी " महाराज जैनोंके सप्तभंगी नयको बड़ा विकट मार्ग बतलाते हैं ! परंतु विचारसे देखा जाय तो यह मार्ग . बड़ा ही सरल और स्पष्ट है ! इसके आश्रयसे हम कठिनसे भी कठिन प्रश्नोंकी मीमांसा बड़ी ही सुगमतासे कर सकते हैं!