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यह लिखमारा हो तो हम कह नहीं सकते ! क्योंकि वे. स्वतंत्र पुरुष थे!
___ "स्वामीजी" ने जो "सन् घटः" इसको प्रथम, भंग कहते हैं, इत्यादि लेखसे जैन मतकी सप्तभंगीका वर्णन किया है, वह जैन धर्मके सिद्धांतमें इनकी मात्र मुग्धताको ही प्रकट नहीं करता ! किंतु " इन्होंने मूल चार वेदोंकी संहिताओंको न सुना न देखा और न किसी विद्वान्से पढ़ा इसी लिये नष्ट भ्रष्ट बुद्धि होकर-इत्यादि-तथा-क्या करें विचारे इनमें इतनी विद्या ही नहीं जो सत्यासत्यका विचार कर-इत्यादि [पृष्ठ ४०२]" " स्वामीजी " के इस लेखको भी इनके ही लिये अस्त्र रूप बना रहा है। . सज्जनो ! किसी भी मतका प्रतिपादन वा खंडन करनेवाले मनुष्य के लिये यह परम आवश्यक है कि, प्रथम वह उस मतका अच्छी तरहसे अभ्यास कर लेवे । हरएक मतके ग्रंथों में कितनीक ऐसी सांकेतिक बातें होती हैं कि, उनका विना अभ्यास
और सहवाससे परिचयमें आना कठिन है ! परंतु आज कल कितनेक ऐसे भी क्षुद्र माशयके मनुष्य देखनेमें आते हैं कि, जो विना ही किसी धर्मके रहस्य को समझे, उसके खंडनमें प्रवृत्त हो जाते हैं ! ऐसे पुरुषों के विषयों महर्षि यास्कका " नायं स्थाणोरपराधः यदेनमन्धो न पश्यति" यह वाक्य ही शरण है।
यद्यपि " स्वामी जी " महाराजके प्रखर पांडित्य पर हमको पूर्ण अभिमान है, और हम चाहते हैं कि, उक्त कलंकसे.. " स्वामीजी." सदा मुक्त रहें! परंतु शोक ! कि, उनकी पूर्वमें । प्रतिपादन की हुई 'सप्तभंगी रूप बालक्रीडा ! हमारी इस शुभ.. आशाको सफल होने नहीं देती ! " स्वामीजी " की निरूप