________________
।
°।
और जड़त्व ( नास्ति ) नहीं है । इसी प्रकार जड़में जड़त्व है और चेतनत्व नहीं है इससे गुण कर्म स्वभावके समान धर्म और विरुद्ध धर्मके विचारसे सब इनका सप्तभंगी और स्याद्वाद सहजतासे समझमें आता है फिर इतना प्रपंच बढ़ाना. : किस कामका है । इसमें वौद्ध और जैनोंका एक मत है"।
[ पृष्ट ४११] [क] समालोचक-" स्वामीजी ने अपने समस्त जीवनमें जैन और बौद्ध धर्मका एक भी ग्रंथ पढ़। अथवा देखा हो ऐसा उनके लेखसे विदित नहीं होता ! अन्यथा वे " अब जो बौद्ध
और जैनी लोग सप्तभंगी और स्याद्वाद मानते हैं " ऐसा कदापि न लिखते ! जैन और बौद्ध धर्मका मनमाना, निर्बल, . खंडन करनेके लिये स्वामीजीने मात्र जिस सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथ के आधार पर उनके मतका यथा कथंचित् निरूपण किया है, यदि उसको भी अच्छी तरहसे देख लेते तो भी उन्हें मालूम हो जाता कि, वौद्ध मतमें सप्तभंगीका सर्वथा अंगीकार नहीं है! सप्तभंगी नयके माननेवाला केवल जैनधर्म है ! बौद्धोंका सिद्धांत क्षणिकवाद है, स्याद्वाद नहीं। और जैनोंका सिद्धांत स्याद्वाद है, क्षणिकवाद नहीं । अर्थात् जैन और बौद्ध धर्मकी विभिन्नताका मुख्य कारण ही स्याद्वाद [सप्तभंगी] और क्षणिकवाद है । यह बात इतनी निर्धान्त है जितना कि मध्याह्नका सूर्य । फिर " स्वामीजी" महाराजने ऐसा क्यों लिखा ? इसका उत्तर सिवा उनके कोई दूसरा दे सके ऐसी हमे आशा नहीं ! । हां ! कदापि-"प्र. मूर्तिपूजा कहांसे चली ? उ. जैनियोंसे. प्र. जैनियोंने कहांसे चलाई ? उ. अपनी मूर्खतासे " [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ३०५ ] अपने इस कथनके अनुसार स्वामीजीने