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परंतु शाक इतना ही है कि, जैनोंके इस व्यापक सिद्धांतको . यथावत् समझनेवाले इस संसारमें बहुत थोड़े मनुष्य हैं ! ऐसे. मनुष्य प्रायः अधिक संख्या में देखे जाते हैं जो कि जैनधर्मके सिद्धांतको समझे सोचे विना ही उसकी पेटभर निंदा करने में अपने जन्मको सफल समझते हैं ! हमारे ख्यालमें ऐसे पुरुषोंके विषयमें "भद्रं कृतं कृतं मौनं, कोकिलैर्दुरागमे ! दर्दुरा यत्र वक्तार-स्तत्र मौनं हि शोभते ॥१॥" इस कवि वाक्यको स्मरण करते हुए जैनोंको मौन रहना ही अच्छा है.
___ हम अपने पाठकों से निवेदन कर चुके हैं कि, जैन , सिद्धांतोंसे असाधारण परिचय रखनेवाले बहुत थोड़े मनुष्य हैं! विचार किया जाय तो जैनमतके कितनेक ऐसे गूढ विचार हैं कि, जिनको समझनेके लिये जैन ग्रंथोंके जानकार किसी योग्य विद्वान्का संग और कुछ परिश्रमकी आवश्यकता है.
। अब हम जैनोंका मंतव्य क्या है? जैन प्रासादका आधारभूत सप्तभंगी नय किसको कहते हैं ? उसका प्रयोजन क्या है ? उससे हम पदार्थोंकी परिस्थितिको सुगमतासे किस . प्रकार समझ सकते हैं ? इत्यादि विषयको संक्षेपसे वर्णन करते हैं। जिससे हमारे पाठक जैनसिद्धांतोंसे कथमपि परिचित होते
हुए अपने मध्यस्थ विचारोंको विशाल करनेके लिये सुगमता • प्राप्त कर सकें.
. जैन धर्मका यथार्थ नाम अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद है । यदि इसको मध्यस्थवादके नामसे पुकारें तो बहुत :: उचित होगा। जैन धर्ममें वस्तु मात्रकी व्यवस्था एक । दूसरेकी अपेक्षासे की · गई है, इसीलिये इसका दूसरा . नाम अपेक्षावाद भी है. जैन · मतमें वस्तुमात्र · ही उत्पत्ति स्थिति और नाश इन तीन अवस्थाओंसे युक्त है।