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और अवशिष्ट आगेको सुनोंगे ! इनके विषयमें हमारा वारंवार लिखना " स्वामीजी "का एक प्रकारका अपमान करना है ! इसलिये " स्वामीजी के संबंधमें इनके चितानुचित पनेकी मीमांसाको हम आप पर ही छोड़ते हुए उक्त . (क)(ख ) आदि वर्गों के क्रमसें ही हम " स्वामीजी के प्रशस्त लेखोंपर मध्यस्थ भावसे दृष्टियात करते हैं । हम अपने पाठकोंको इतना स्मरण फिर भी करवाये देते हैं कि, स्वामीजीके लेखका प्रतिवाद करनेका हमारा अभिप्राय नहीं है, हमारा उद्देश उनके लेखको यथार्थ समीक्षण करके मध्यस्थ संसारके समक्ष उपस्थित करनेका है. अस्तु ! अब प्रकृतका अनुसरण करते हैं।
[क] स्वभावसे जगत्की उत्पत्ति मानना जैन शास्त्रके मंतव्यसे वाहिर है ! जैन शास्त्रोंका परिशीलन करनेवाले इस वातसे बखूबी परिचित हैं कि, स्वभाववादका जैनशास्त्रोंमें युक्ति पूर्ण इतना प्रतिवाद-खंडन किया है कि, " स्वामीजी" के ग्रंथों में उसका शतांशतो क्या ? सहस्रांश भी उपलब्ध नहीं होता ! फिर मालूम नहीं कि " और जैन भी जगतकी उत्पत्ति स्वभावसे मानते हैं " यह व्यर्थ निर्वल अपवाद जैनों पर लगाने और उसका प्रतिवाद करनेका " स्वामीजी" का क्या आशय था ? क्या ही अच्छा होता ! यदि जैन धर्म के मान्य ग्रंथों के दो चार प्रमाण भी लिख देते ! जिससे जैनोंकीमानी हुई स्वभावसे संसारोत्पत्तिके विषयमें किसीको संदेह ही न रहता! क्या कोई समाजी विद्वान इस बातको सप्रमाण बतलानेकी कृपा करेंगे?