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१२९ छानसे रहित साधुओंको वंदना करनेवालेकी न तो संसारमें कीर्ति होती है और न कोंकी निर्जरा होती है। प्रत्युत वह चंदनाद्वारा शरीरको कष्ट देता और कर्म बंधन करता है। इसलिए गाड़ी वाड़ी और लाड़ी के शायकीनोंको [चाहे वह कितनेभी पढ़े लिखे और मीठे २ व्याख्यानोद्वारा लोगोंको मुग्ध करनेवाले भी क्यों न हों| केवल वेषमात्रसे साधु तथा. गुरु कहने, एवं पूज्य गुरुबुद्धिसे उनकी सेवा भक्ति करनेकी आज्ञा जैन शास्त्र तो नहीं देता । विवेकसारके रचयिता दें यह उनका अखत्यार है ! हमारे ख्यालमें तो इसप्रकारके ग्रंथ जैन धर्ममें कलंक रूप हैं ! इसलिए जैनोंको इस तर्फ अयश्य लक्ष्य देनेकी जरूरत है!
[६] चोरका चोरीको त्याग कर तपश्चर्या करके सद्गतिको जाना कोई असंभव बात नहीं । तपकी महिमा अवर्णनीय है। इसमें वाल्मीक और मातंग जैसे महर्षियोंके इतिहास आबालगोपाल प्रसिद्ध हैं। महर्षि मनुजी (वस्तुतस्तु भृगुनी) मनुस्मृति अध्याय दशमें लिखते हैं कि--
यस्तरं यदुरापं, यदुर्ग यच्च दुष्करम् । तत्सर्व तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ॥२३९॥ महापातकिनश्चैव, शेषाश्चाकार्यकारिणः । तपसैत्र सुतप्तेन, मुच्यन्ते किल्विषात्ततः ॥२४०॥ कीटाचाहिपतंगाच, पशवश्च वांसि च । स्थावराणि च भूतानि, दिवं यान्ति तपोबलात् ॥२४॥
इन श्लोकोंका भावार्थ यह है कि जिस हेतुसे दुस्तर दुष्प्राप्य और दुष्कर कार्य भी तपके प्रभावसे सिद्ध हो सकते