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११७ कि, स्वामीजीके इस कथनको सत्य मानकर उनको भ्रष्ट बुद्धिवाले कहना उनको ठीकै जलता है ? या उनके इस कथनको झूठा बतला कर उनको मिथ्याभाषी ठहराते हुए उनका अपमान करना वे अच्छा समझते हैं ?
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स्वा० द० स०
किं सोपि जणणिजाओ जाणो जणणी इकं अगो विद्धि । जई मिच्छंर ओ जाओ गुणे सुत मच्छरं वहह ॥ ष० श० सू० ८१ ॥ जो जैनमत विरोधी मिथ्यात्वी अर्थात् मिथ्या धर्मवाले हैं वे क्यों जन्मे ? जो जन्मे तो वंदे क्यों ? अर्थात् शीघ्र ही नष्ट हो जाते तो अच्छा होता ॥ ८१ ॥ ( समीक्षक ) देखो ! इनके वीतराग भाषित दया धर्म दूसरे मतवालोंका जीवन भी नहीं चाहते केवल इनका दया धर्म कथन मात्र है इत्यादि [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४३४ ]
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समालोचक - सज्जनो ! इस प्रकार संकुचित और हलकी शिक्षाका वर्णन जैन ग्रंथोंमें तो हमारे देखने में नहीं आया | हां ! स्वामीजीके ग्रंथों में तो है 11 देखो [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ट ३३०" इन भागवतादिके बनाने हारे जन्मते ही क्यों नहीं गर्भही में नष्ट हो गये " इत्यादि ] यहां पर तो स्वामीजीने " उलटा चोर कोटवालको डांटे " वाला 'हिसाब किया है ! क्योंकि, अन्य मतवालोंके जीवन तकको भी चाहते तो स्वयं नहीं, इसीलिए स्पष्ट लिख रहे हैं । परंतु इस महा घृणित द्वेषमय उपदेशका इलजाम बिचारे जैनों पर लगा रहे हैं | परन्तु स्मरण रहें " जो कि ज़ालिम है वो हरगिज़ फूलता फलता नहीं ! सबज होते खेत भी देखा कहीं शमशेरका ? "