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११८ . ... ऊपर हमन जा षष्टिशतकका श्लोक सत्यार्थ प्रकाशसे उद्धृत किया है उसका पाठ अधिकांश * अशुद्ध और अस्तं व्यस्त्य है ! और उसके अर्थमें तो इतनी भी सत्यता नहीं है जितनी कि स्वामीजीमें भी थी ! इसलिए उक्त श्लोकके यथार्थ पाठ और अर्थको हम यहांपर लिखते हैं, जिससे स्वामी दयानंद सरस्वती और जैनों के संबंध उक्त विषयकी छान वीनका समय पाठकोंको सुगमतासे मिल सके. . - सज्जनो ! संसारमें इस प्रकारके मनुष्य भी बहुत हैं, जो कि, अपने कदाग्रहसे झूठको सत्य और सत्यको झूठ मानते तथा उपकार परायण सच्चारित्री प्रशस्तजीवी धार्मिक विद्वानोंसे प्रत्यक्ष द्वेष करते हैं ! ऐसे मनुष्योंके उपलक्ष्यमें उक्त ग्रंथ 'कार लिखते हैं कि--
"किं सोवि जणणि जाओ, जाओ जगणीइ किं गओ बुर्छि । जइ मिच्छरओ जागो, गुणेमु तह मच्छर वहई ॥ ८१ ॥" अर्थात् *मिथ्यात्वमें रक्त और सच्चारित्री विद्वानोंसे (अहेतुक) द्वेष करनेवाला मनुष्य क्या (प्रशस्त ) मातासे जनित है ? यदि यह सत्य है तो उसकी वृद्धि क्यों हुई ? अर्थात् वह पुष्ट क्यों हुआ । इसका खुलासा मतलब यह है-जो मनुष्य
• * इसमें कोई नई बात नहीं है ! यही तो स्वामीजीकी प्राकृतानभिज्ञताका प्रमाण है !॥ ___ * अदेवमें देवबुद्धि, अगुरुमें गुरुबुद्धि, और अधर्ममें धर्मबुद्धिको जैनग्रंथोंमें मिथ्यात्व बतलाया है. यथा-अदेवे देवबुद्धियाँ, गुरुधीरगुरौ चं या।
___अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥ [योगशास्त्रे] . * से नरो जनन्या किं जातः १ जातश्चेत्किं वृद्धि गंतः ? यदि मिथ्यारक्तः अथ च गुणेषु मत्सरं वहति, सत्यधर्मवन्तं द्वेष्टि । एतावता तस्य जन्मवृद्धयादिकं सर्व निरर्थकमेवेत्यवचूरिकारः ।।