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११६ और उनका मत संसारको अविद्यांधकारके सागरमें डुबानेवाले सिद्ध होते हैं । क्योंकि, वे जैन मतको ऐसा ही बतलाते हैं ! इसलिए स्वामीजीके उक्त कथनको सत्य मानकर उनके सारे उपदेशको धूलमें मिलाना हम पसंद नहीं करते !
फिर जो इसके आगे ही स्वामीजी लिखते हैं कि, " जबतक मनुष्यकी अति अज्ञान और कुसंगसे बुद्धि भ्रष्ट होती है तबतक दूसरों के साथ अति ईर्ष्या द्वेपादि दुष्टता नहीं छोड़ता जैसा जैन मत पराया द्वेपी है ऐसा अन्य कोई. नहीं"।
स्वामीजीके इस कथनका स्पष्ट आशय यह. है कि, जिस मनुष्यकी अज्ञान और कुसंग आदि दोषों से बुद्धि भ्रष्ट हो रही है वही दूसरों को बुरा कहता है. अर्थात् दूसरोंसे ईर्षा द्वेष करना और उनको बुरा कहना इत्यादि दोषोंका कारण ही. अज्ञान और कुसंग है ! अथवा यूं समझिए. कि, दूसरोंको. वही मनुष्य कुरा बतलाता है कि, जिसकी बुद्धि अज्ञान और कुसंग प्रभृति दोषोंसे नष्ट भ्रष्ट हो गई हो ! परंतु स्वामीजीके इस कथनको वही सत्य मान सकते हैं, जो कि, उनको (स्वा० को) नष्ट भ्रष्ट वुद्धिवाले कहने में कुछ भी संकोच न. रखते हों ! क्योंकि, स्वामीजीके लेखानुसार. दूसरोंसे ईषो द्वेष या दूसरोंकी निन्दा वही मनुष्य कर सकता है कि, जिसकी- अज्ञानता और कुसंगसे: बुद्धि भ्रष्ट हो गई हो! स्वामीजी तो दूसरोंकी निन्दामें ग्रंथोंके ग्रंथ काले कर गए हैं! इसलिए अज्ञानता और कुसंग.दोषसे उनकी बुद्धि नष्ट भ्रष्ट हो रही थी यह बलात् स्वीकार करना पड़ेगा! हम तो न स्वामीजकि उक्त, कथनको सत्य ही मानते हैं, और न उनको नष्ट भ्रष्ट बुद्धिवाले ही: कहते हैं ! परंतुःस्वामीनकि वचनको विधाताको रेख माननेवाले कतिपय नवीन आर्य महाशयोंसे हमारी.प्रार्थना है