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११५ : हानि है उनके कथन किये हुए धर्म ( वस्तुतः अधर्म ) का जो मनुष्य अनुष्ठान करते हैं वे ( विवेक शून्य ) मानों चोरका संग करने में बुराई समझके उसको छोड़कर स्वयं चोरी करने में प्रवृत्त होते हैं ! " अर्थात् चोरके संसर्ग में दोष समझ कर भी -चोरी में बुराई न समझनेवाला मनुष्य जैसे विंचार शून्य समझा जाता है, वैसे ही कुमार्गगामी स्वार्थी लोगों के कुत्सित उपदेशका अनुष्ठान करनेवालेको भी समझना चाहिए ! इसके सिवा स्वामीजीने जैनमतसे भिन्न चोर धर्म इत्यादि जो कुछ लिखा है, वह सब उनकी निजकी कल्पना है ! ऊपर लिखे हुए प्राकृत श्लोक में से किसी अक्षरका भी अर्थ नहीं ! स्वामीजीका इस प्रकार से लिखनेका आशय निस्सन्देह अन्य मतबालोंका जैनोंसे द्वेष बढ़ाने का ही प्रतीत होता है ! परंतु इस द्वेषसे उन्हे क्या लाभ होगा ? सो हम नहीं कह सकते .
सज्जनो ! स्वामीजी महाराज कहते हैं कि, "जो जैसा मनुष्य होता है वह अपने ही सदृश दूसरोंको समझता है. " परंतु हम तो इस कथनको सत्य मानने के लिए तैयार न होंगे ! क्योंकि, स्वामीजी जैसे महापुरुषको कुम्हारका टट्टू, भडुआ, झूठा, दुकानदार, स्वार्थी, मूर्ख, अधर्मी, निर्दय, पापी, दुराचारी, द्वेषी, महानिन्दक, पामर वगैरह कहने में हम सर्वथा असमर्थ हैं ! यदि हम उनका उक्त कथन सत्य प्रमाणित करें तब तो उनके विषय में उक्त अपशब्दों का प्रयोग करने के लिए हमे अवश्य बाधित होना पड़ेगा ! क्योंकि, स्वामीजीने अन्य - धर्मगुरुओंके संबंध में इन पूर्वोक्त शब्दोंका व्यवहार किया है ! स्वामीजीके कथनानुसार स्वयं पापी हुए विना कहां नहीं जाता ! या यूं कहिए कि, जो स्वयं पापी है वही दूसरोंको पापी कहता वा जानता है ! ऐसा मानने से स्वामीजी
दूसरोंको पापी