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इसके अनंतर उक्त. उपदेशका स्वामीजी हमको सार चतलाते हैं कि, इससे यह सिद्ध हुआ कि विनी जैनियों के वैसे दूसरे कौन पक्षपाती इंटी दुराग्रही और विद्याहीन होंगे."
सज्जनो! यह स्वामीजीकी मधुर भापाका नमूना हैं ! जो कि उनके पवित्र मुखसे निकला हुआ है !अच्छा स्वामीजी ! जैन तो पक्षपाती हठी दुराग्रही और विद्याहीन हैं ! परंतु आप तो उक्त दोपोंसे सर्वथा मुक्त थे ! इसी लिएं आपने जैनोंको इन शब्दोंसे याद किया ! अत: हम उस गुजरात-काठियावाड़ भूमिको हृदयसे धन्यवाद देते हैं जहां पर आप जैसे पक्षपात आदि दोपोंसे रहित महानुभावोंका अवतार हुआ : वइ जननी भी सहस्रशः धन्यवाद के योग्य है जिसकी कुक्षीसे आप जैसे अमूल्य रत्न पैदा हुए ! स्वा मजिकि इन पूर्वोक्त मनोहर वचनों के संबंध उनके भक्तों को हम वधाई देते हैं और स्मरण. कराते हैं कि," तूं भला है तो बुरा हो नहीं सकता ऐ जाक! है बुरा वही कि जो तुझको बुरा जानता है ! "
[] स्वा० द० स०मू.-*अइसयपावियपावा, धम्मिअपव्वेसु एव पावरया । न चलंति सुद्ध धम्मा, धन्ना केवि पावनेमु ।।
[पष्ठिश० २९] * सत्यार्थ प्रकाशमें यह गाथा बहुत ही अस्त व्यस्त लिखी हुई है ! जो कि स्वामीजीके प्राकृत ज्ञानका एक नमूना है.! प्रायः सर्वत्र ही गाथाओंको तोड़ फोड़ उसकी संकलना और वाक्य रचनाका स्वामी ने नाश कर दिया है ! यही स्वामीजीकी प्राकृत अशताका पूर्ण दृष्टांत है !!