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________________ . लिखा हैं. अर्थात् दुर्जन मनुष्य यदि विद्यासे भी युक्तहो तो भी उसको त्याग देना चाहिए ! क्या मणिसे युक्त सर्प. भयके देनेवाला नहीं होता ? इसका स्फुट भाव यह है कि, जैसे मणियुक्त भी सर्प भयप्रद होनेसे त्यागने योग्य है । ऐसे दुर्जन, यदि विद्वान् भी हो तो भी उसको त्याग देना! बस ! ऊपर लिखी पष्ठिशतककी गाथाका भी ऐसा ही. अर्थ है. अर्थात् मणिसे युक्त भी विषधर-सर्प विघ्नकारक होनेसे. जैसे त्यागने योग्य है इसीप्रकार शास्त्रसे विरुद्ध कथन और आचरण करनेवाला यदि विद्वान् भी हो तो भी वह त्याग देने लायक है ! अर्थात् उसकी संगत करनी अच्छी नहीं ! इसके इलावा स्वामीजीने ( जो जैन मतमें नहीं हैइत्यादि ) जो अर्थ किया है, वह केवल उनकी निजकी कल्पना है । उक्त गाथामें ऐसा कोई पद नहीं जिसका यह अर्थ हो सके! सज्जनो ! यह उपदेश इतना सुंदर और सार गर्भित है कि, संसार भरका कोई भी निप्पक्ष विद्वान् इसकी प्रशंसा किए विना न रहेगा ! परंतु स्वामीजीने जैन आचार्यों और तीर्थंकरोंको वृथा ही मूर्ख बतलाकर संसारभरकी कालिमासे. अपने मुखको उज्ज्वल क्यों किया? इसका जवाब देनेमें हम. असमर्थ हैं । एवं स्वामीजी उक्त उपदेशको दृपित ठहरानेकेलिए युक्ति देते हैं कि, " क्या सुवर्णको मल वा धूड़मे पड़ेको कोई त्याग देता है" परंतु स्वामीजीका यह कथन उक्त उपदेशके. प्रतिवादमें कितना असंगत और भद्दा है, इसको वृद्धसे लेकर बालक भी अनायाससे समझ सकते हैं ! इसलिए स्वामीजीकी ऐसी प्रसिद्ध मुग्धतापर विशेष लिखना उनका अपमान करना है।
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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