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९७ अपनी बड़ाई करनी मूर्खता ही नहीं ! प्रत्युत पामरंता भी है। परंतु इस कंथनको ऊपर कही गई प्राकृत गाथाके साथ क्या
संबंध है, इसका उत्तर यदि किसी निप्पक्ष 'बिद्वान्से पूछा • जावेतो. आशा नहीं कि वह स्वामीजीकी स्वैरिणी इच्छाके सिवा • कुछ औरभी कहनेका साहस कर सके ! क्या ऊपर लिखे हुए प्राकृत
लोकमें अपने मुखसे अपनी बड़ाई और अन्यकी निंदा करनेका उपदेश है ? यदि नहीं तो हमें बलात् कहना पड़ेगा कि, स्वामीजी जैनमतके संबंध अवश्य ईकिलुषित थे !
सजनो ! किसी एक आदमीको सिरमें धोती और कमरमें कमीज बांधते देख कर पासमें बैठे हुए एक भद्रपुरुषने कहा कि, मित्र ! ऐसा मत करो ! धोतीको कमरमें बांधो और कमीनको गलेमें डालो ! यह सुन वह बोला कि, बस करो साहिब रहने दो ! कल आपने भी तो लड़के की शादी करी थी जिसमें हमको बुलाया तक भी नहीं ! सचमुच ही स्वामीजीकी समीक्षाकी भी यही दशा है ! उक्त श्लोकमें कथन तो यह है कि, " उत्सूत्रता और उन्मार्गतासे तीर्थंकरोंकी आज्ञाका भंग होता है वह पाप है इसलिए उनकी आज्ञाका उल्लंघन करना उचित नहीं" परंतु स्वामीजी समीक्षा करते हैं कि-" अपने मुखसे अपनी बड़ाई और दूसरेकी निंदा करनी मूर्खताकी बात है" पाठक महोदय ! कहिए ! स्वामीजीके ग्रंथोंसे अतिरिक्त भी कहीं इस प्रकारकी समीक्षा देखनेमें आई ? देखो भी कहां ! स्वामीजी जैसा दूसरा समीक्षक आज तक कोई पैदा हुआ ही नहीं ! हां ! भविष्यत्में कोई हो जाय तो हम कह नहीं सकते !
हमारे वर्तमान आर्य महाशयोंको यह जान कर बड़ा ही प्रसन्न होना चाहिये कि, भगवान स्वामी दयानंद सरस्वती
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