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२८ महाराज, वेद भाष्योंके अमूल्य रत्न भंडारको उनके सपुर्द कर जानेके अतिरिक्त अपनी अगाध बुद्धिका यह (जैनमतको । समीक्षा ) नमूना भी इनके पास छोड़ गए हैं। जिससे उनकी विद्वत्ताका परिचय प्राप्त करवानेके लिए इनको किसी प्रकारका परिश्रम भी न उठाना पड़े ! हमारे ख्यालमें तो स्वामीजीके स्वर्णमय प्रशस्त जीवनकी परीक्षाके लिए यह समीक्षा ही बड़ी मजबूत कसौटी है ! अस्तु ! अब हम प्रकारांतरसे इस बात पर विचार करते हैं.
सज्जनो! पठिशतकके रचयिताके कथनका इतना ही सरल और स्पष्ट सार है कि, " भगवान् वीतरागके उपदेशसे विरुद्ध कथन करना और आचरण करना उचित नहीं है" इसका तात्पर्य यदि स्वामीजीने " अपने मुखसे अपनी वड़ाई " करनाही समझके जैनोंके पूजनीय तीर्थकरों और आचार्योंको मूर्ख वतलाकर उनका दिल दुःखाया हो ! तर तो पाठक, क्षमा करें! हम विवश हैं ! स्वामीजीकी [" अच्छा तो वेदमार्ग है जो पकड़ा जाय तो पकड़ो नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे "-"जो पापाणादि मूर्ति पूजते हैं वे अतीव वेदविरोधी हैं "-"जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुषोंके किये शास्त्रोंका अपमान करता (नहीं मानता) है उस वेदनिंदक नास्तिकको जाति पंक्ति और देशसे वाह्य कर देना चाहिये"-"सच तो यह है कि जिन्होंने वेदोंसे विरोध किया और करते हैं और करेंगे वे अवश्य अविद्या रूपी अंधकारमें पड़के सुखके बदले दारुण जितना *दुःख पावें उतनाहीन्यून है". • यह ललित लेखमाला. उनको मूखौंका भी सरदार बना रही
__* स्वामीजीने ये भयंकर शब्द मानुषी दशामें लिखे होंगे या अन्य किसी में ? यह विचार करने योग्य है !!!
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