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________________ है! परंतु स्वामीजी जैसे प्रखर विद्वान् ऐसे सार गर्मित उपदेशके विषयमें विना ही समझे क्षुद्रताका परिचय देवें यह कितने दुःखकी बात है ! ! सत्य है " घूमा कोकिल वृंद बीच सुखसे आजन्म तू काक रे, छोड़ा किंतु कटूक्तिको न फिर भी हा हंत तूने अरे ॥ किंवा है लवलेश दोष इसमें तेरा नहीं दुर्मते, या यस्य प्रकृतिः स्वभाव जनिता केनापि न त्यज्यते ॥१॥ [छ ] स्वा० द० स०-- मूल--जिणवर आणाभंग, उमगा उस्मुत्तलेसदेसणओ। आणा भंगे पावं, ता जिणमय दुक्करं धम्मं ॥ षष्टी श.सू.११.. "उन्मार्ग उत्सूत्रके लेश दिखानेसे जो जिनवर अर्थात् बीतराग तीर्थंकरोंकी आज्ञाका भंग होता है वह दुःखका हेतु पाप है. जिनेश्वरके कहे सम्यक्त्वादि धर्मका ग्रहण करना बडा कठिन है इसलिये जिस प्रकार जिन आज्ञाका भंग न हो वैसा करना चाहिये ॥ १ ॥ (समीक्षक ): जो अपने ही मुखसे अपनी प्रशंसा और अपने ही धर्मको बड़ा कहना और दुसरेकी निंदा करनी है वह मूर्खताकी वात है क्योंकि प्रशंसा उसीकी ठीक है जिसकी दूसरे विद्वान् करें अपने मुखसे अपनी प्रशंसा तो चौर भी करते हैं तो क्या वे प्रशंसनीय हो सकते हैं ? इसी प्रकारकी इनकी बातें हैं" [ सत्यार्थ प्र० पृ० ४२९-३० ] [छ ] समालोचक-स्वामीजी कहते हैं कि-" अपने मुखसे अपनी बड़ाइ करनी मूर्खताका काम है। उनका यह कथन संचमुचही सुवर्णाक्षरोंमें मुद्रित करने लायक है ! अपने मुंहसे
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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