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________________ [च] सजनो ! स्वामीजीकी प्राकृत संबंधि विज्ञताको छोड़ कर उनके संस्कृत पांडित्य परभी यदि कुछ दृष्टि डाली जावे तो वहांभी सिवा आंसू बहानेके और कुछ नहीं हो सकता ! जो लोग उनको महर्षि और भगवान्के बैलूनपर पर चढ़ा रहे, हैं ! उन विचारों की भी शास्त्रीय योग्यता और संस्कृत ज्ञान हदसे पार ही होना चाहिए ! ऊपर लिखे हुए जैन ग्रंथके संस्कृत श्लोकके जिस आधे भागके नीचे लंबीसी लकीर बैंची है उसका अर्थ यदि आप एक लघुकौमुदी पढ़नेवाले विद्यार्थीसे भी पूछोगे तो वोह भी यह स्पष्ट बतला सकेगा कि, उक्त श्लोकका यह आधा भाग अशुद्ध है! और स्वामीजीने जो उस (अशुद्ध) का भी अर्थ किया है उसका उक्त श्लोकके साथ इतना भी संबंध नहीं, जितना कि एक सन्यासी महात्माका वेश्याके साथ भी होता है! हम हैरान हैं कि, "सर्वथानवद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते" इन अक्षरोंका "सब प्रकारके निंदनीय अन्य मत संबंधका. त्याग" यह अर्थ स्वामीजीने किस व्याकरण अथवा पद्धतिके अनुसार किया है ? यद्यपि स्वामीजी इस समयमें नहीं हैं परंतु, उनको भगवान्की मेलट्रेनमें सवार करानेवाले अभी लाखोंकी संख्या विद्यमान हैं ! उनमें पंडितमन्योंकी भी कुछ न्यून संख्या नहीं ! क्या वे स्वामीजी महाराजकी उक्त अर्थ संबंधित मुग्धतामें कुछ सहानुभूति प्रकट करेंगे ? यदि कोई समाजी महाशय सत्यार्थ प्रकाशमें उद्धृत किये हुए उक्त श्लोकके ज्यूके यूं पाठको जैन ग्रंथोंमेंसे बतलाने और व्याकरण अथवा अन्य किसी माननीय पद्धतिके अनुसार उसके स्वामीजी द्वारा किये गये अर्थको सत्य प्रमाणित करनेकी कृपा करें तो हम . उनका
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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