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बड़ा. ही आभार मानेंगे ! परंतु यह भाशा यदि निष्फल नहीं तो सफल होनी भी असंभव है.! . . हम अपने विद्वान् पाठक समुदायसे भी प्रार्थना करते हैं कि, वे स्वामी महोदयके किये हुए अर्थपर अवश्य लक्ष दें! उक्त श्लोकको अर्थ करते समय स्वामीजीने अकेली मुग्धतासे
ही काम लिया हो ऐसा नहीं, किंतु उसके सहोदर दुराग्रहको • भी अपने पास बिठा रखा था ! अन्यथा “अन्यमत संबंधका त्याग" यह किन अक्षरोंका अर्थ किया गया ? यह स्वामीजीने अन्यमतोंका जैनधर्म पर द्वेष बढ़ानेके लिए ही लिखा है ! ऐसा स्पष्ट मालम पड़ता है।
स्वामीजीने सिख धर्मके आचार्य गुरु नानक देवजीकी खिल्ली उड़ाते हुए लिखा है कि-" वे चाहते थे कि मैं भी संस्कृतमें पग अड़ाऊं परंतु विना पढे संस्कृत कैसे आसकती है?" [स.पृ० ३६६] हमारे ख्यालमें कदापि गुरु नानक देवजी, स्वामीजीके इस उपालंभके उत्तर दाता नभी हो सकें ! क्योंकि उन्होंने साधारण लोगोंके बोधके लिए केवल सरल पंजाबी भाषामें ही अपने सारगर्मित उपदेशोंका संग्रह किया है ! और वे संस्कृत जाननेका अभिमान करते हों ऐसा उनके लेखसे विदित नहीं होता ! इसलिए उनके विषयमें इस प्रकारका आक्षेप करना सिवा ईषांके और कुछ तात्पर्य नहीं रखता! हां! स्वामीजीके संबंधमें यह बात अच्छी तरह सं गठित हो सकती है ! क्योंकि उनपर इस बातकी जोखमदारी सबसे अधिक है ! वे महर्षि थे ! वे वेदोंके एवं शास्त्रोंके आचार्य थे ! उनके विशाल पांडित्यकी विजय पताका अभी तक भी फड़ फड़ा रही है ! इसलिए उनके किये हुए उक्त श्लोकके " कीर्तितं तदहिंसादिवतभेदेन पंचधा" इस अवशिष्ट अर्द्ध. भागके