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भी सर्वधा विरुद्ध है। इसी बात का खुलासा यहां पर इन सूत्र की धवला टीका से करते हैं:
पत्रापि पूर्ववपर्यासानां पर्याप्तव्यवहारः प्रवर्तयितव्यः । अथास्यादिस्ययं निपातः कपब्दियस्मिनर्थ वसंते। तेन स्यामा पर्याप्तनामकोश्यारीनिष्पत्यपेक्षया रास्याद. पर्याप्ताः शरीरानिष्पस्यपेक्षया इति वक्तव्यम । सुगमभन्या ।
अर्थ-यहां पर भी पहले के समान निर्ष स्पपर्याप्तकों में पर्यापने का व्यवहार कर लेना चाहिये। अथवा 'स्यात्' पर निपात कञ्चन अर्थ में पाता है। इस स्याम (सिया) परके अनुसार वे कथंचिन पर्याप्त होती है। क्योंकि पर्याप्त नाम फर्म के समय की अपेक्षा से अथवा शरीर पानि की पूर्णता की अपेक्षा से वे बियां श्याप्त की जाती हैं। तथा व्यक्ति परांत भी होती है। शरीर पर्याप्ति की पूर्णता की अपेक्षा समपर्याप्त हावी है। __यहां पर धावार ने "अत्रापि पूर्षत"ये पर देकर यह बताया कि निसाकार पहले सूत्रों में पर्याप्ति अपर्याप्ति के सम्बम्ब से ममुम्यों की पटपर्याप्तियों की पूर्णता-बोर अपूर्णता का और उन अवस्थामों में प्राप्त होने वाले गुणस्थानों का वर्णन किया है ठीक वैसा ही वर्णन यहां परभी किया जातामह सिहोता. किस १३ सूत्र में भी उसी प्रकार व्यापार बकवन है जैसा किले के सूत्रों में मनुष्य तिर्यन प्रादि।