________________
ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार असयत सम्यग्दृष्टियों के भी अपर्याप्त अवस्था में (सम्यग्दर्शन को अपेक्षा) पर्याप्तपने का सामा जायगा १
उत्तर-यह कोई दोप नहीं है क्योंकि द्रव्यार्थिक नय के अवलम्बन की अपेक्षा प्रमत्त संयतों को आहारक शरीर सम्बन्धी बह पर्याप्तियों के पूर्ण नहीं होने पर भी पयाप्त कहा है।
भावपक्षी विद्वान ध्यान से ऊपर की पंक्तियों को पढ़कर विचार करें। __ यहां पर जो व्याख्या धवलाकार ने की है वह इतनी स्पष्ट है कि भाववेद पक्षबालों का शक्ता एव सन्देह के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता है। बहुत सुन्दर हेतुपूर्ण विवेचन है छठे गुणग्थान में मुनि पर्याप्त हैं क्योंकि उनके पौधारिक शरीर पूर्ण हो चुच है इसलिये वहां पर पर्याप्त अवस्था में संयम का सद्भाव बताया गया। परन्तु बठे गुणस्थान में उसी प्राहार वर्गणा से बनने वाला बाहारक शरीर जबतक पूर्ण नहीं है तब तक मुनि को पर्याप्त कैसे कहा जायगा और वहां संयम कैसे होगा ? इसके उत्तर में पर्याप्त नामकर्म का उदय एवं व्यार्थिक नय का भव. लम्बन मादिकाकर जो समाधान किया गया है उससे भलीभांति सिड होता है कि संयत गुणस्थान पटपयाप्तियों को पूर्णता करने वाले मनुष्य के द्रव्य शरीर के माधार से ही कहा गया है। इसी लिये हमने इतनी व्याख्या लिखकर इस प्रकरण का दिगर्शन